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शोडशाष्टक.
१४७ अहीं वादी शंका करे के, नित्य अने अनित्यपणाने तो परस्पर विरोध के, तो ते बन्ने नावोनुं एक वस्तुमां होवापणुं केम घटे ? तेने माटे हवे तेने कहे जे के, जेम परमार्थ अने व्यवहारनी अपेवाश्री ज्ञाननी ब्रांति अने अज्रांति साथेज थाय , तेम - व्यथी नित्यपगुं, अने पर्यायथी अनित्यपणुं विरूध नथी; तेम प्रव्य अने पर्यायमां परस्पर नेद नथी; केम के, वस्तुमां जे रूप मुख्यताथी नथी रां, ते अव्य कहेवाय ने, अने जे मुख्यताथी रघु बे, ते पर्याय कहेवाय जे. (पण बन्ने साये तो रह्यांज बे.) तथा शरीरथी निन्न अने अनिन्न एवा आत्मामां ते हिंसादिको घटी शके के केम के आत्मा शरीरथी जिन्नाभिन्न . कारण के, जीव अरूपी होवाथी, तथा देह रूपी होवाथी, रूपी अने अरूपीपणा तरिके तेमां नेद जे; तथा देहने स्पर्शादिक श्रवाथी, जीवनेज सुखःखनी प्राप्ति श्राय डे, माटे तेमां अनेद पण . अने जो एकांत रीते तेमां नेद मानीए, तो शरीरे करेलां कर्मो जवांतरमा जीवने जोगववां न पड़े, अने जो एकांत अजेदज मानी, तो परलोकनी हानि थाय, केम के, तेथी तो शरीरना नाशथी जीवनो पाण नाश पाय. (माटे एवी रीते आत्माने विषे नित्यानित्यपणुं तथा देहथी जिन्नानिन्नपणुं केवल कटपनाथी नहीं पण, परमार्थथीज घटे ) तेवा स्याघादमय आत्मामां न्यायपूर्वक आश्रव, संवर, बंध, मोह तथा सुख आदिक घटी शके जे; ते पण केवी रीते ? तो के, अविरोधपणाश्री, एटले एकांत पदमां हिंसादिकनी प्राप्तिमा जे दूषणो श्रावतां हतां, तेना परिहारे करीने, अर्थात् निर्दोषपणायें करीने घटी शके जे.
हवे अात्माना परिणामीपणामां हिंसानो अविरोध देखाडवा माटे कहे जे.
पीडाकर्तत्वयोगेन, देहव्यापत्यपेक्षया ॥ तथा हन्मीति संक्लेशा, हिंसैषा सनिबंधना ॥२॥
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