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________________ १० श्रीहरिलप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । ते फक्त आपपेटलरापणाने सूचवनारी, तथा ते व्याघ्रादिकोनी उर्गति आदिकनी अपेक्षावाली बे. . हवे चालती बाबतने संपूर्ण करता थका कहे जे. एवंसामायिकादन्य, दवस्थांतरनकम् ॥ स्याच्चित्तं तत्तु संशुफे, यिमेकांतनकम् ॥ ७॥ अर्थ- एवी रीते सामायिकथी जुदी रीतनुं जे चित्त, ते श्रवस्थांतरमां नषक होय, अने सामायिक तो, समस्त दोषना वियोगधी एकांत शोननिक जाणवू. टीकानो नावार्थ- ( उपरना श्लोकना अर्थने मलतोज बे.) एवी रीते गणत्रीशमा अष्टकनुं विवरण संपूर्ण थयुं. त्रिंशतितमाष्टकं प्रारज्यते. एवी रीते उपर सामायिकने एकांत ना कह्यु; हवे ते केवु होय ? ते कहे . सामायिकविशुद्धात्मा, सर्वथा घातिकर्मणः ॥ क्षयात्केवलमाप्नोति, लोकालोकप्रकाशकम् ॥१॥ अर्थ-सामायिके करीने शुध, आत्मा जेनो एवो प्राणी, सर्वथा प्रकारे घातिकर्मोना क्यथी, लोकालोकने प्रकाश करनारा एवा केवलज्ञानने पामे .. हवे ते लावता का कहे जे. ज्ञाने तपसि चारित्रे, सत्येवास्योपजायते ॥ विशुद्धिस्तदंतस्तस्य, तथाप्राप्तिरिष्यते ॥२॥ अर्थ- ज्ञान, तप, अने चारित्र, होते तेज आत्माने पिशुछि थाय जे; अने तेथी तेवी रीते केवलज्ञाननी प्राप्ति थाय बे. . टीकानो नावार्थ- ज्ञान एटले ज्ञेय वस्तुने प्रकाश करवामां दीपक समान एवं श्रुत आदिक, उपलक्षाणथी सम्यक्त्व पण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003686
Book TitleHaribhadrasuri krutanyashtakani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1900
Total Pages220
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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