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________________ घादशमाष्टक. अने तालवाना शोषमात्र फलवालो, एटले कोइ वादीनी साथे उलटाज विषयने आश्रीने बोलq ते, “शुष्कवाद" कहेवाय; तथा “विवाद" एटले जयनी प्राप्ति थाय, तो पण परलोकादिकने जे बाधा पहोंचाडे, ते “विवाद" कहेवाय; तथा धर्मवडे करीने प्रधान एवोजेवाद,ते “धर्मवाद" कहेवाय; अर्थात् मध्यस्थपणाथी धर्मरूपी सुवर्णनी कष आदिक परीक्षाना लक्षणवालो ते “धर्मवाद" कहेवाय; एवी रीतनात्रण प्रकारना वादो उत्तम मुनिए कहेला ने. हवे तेउमाथी पेहेला वादनुं स्वरूप कहे . अत्यंतमानिना साधं, क्रूरचित्तेन च दृढम् ॥ धर्महिष्टेन मूढेन, शुष्कवादस्तपस्विनः ॥२॥ अर्थ- अत्यंत गर्विष्ठ, क्रूर चित्तवालो, तथा धर्मनो अत्यंत वेष करनारो, अने मूर्ख, एटलानी साथे जे साधुनो वाद, ते "शुष्कवाद" कहेवाय. टीकानो लावार्थ- अत्यंत जेने गर्व होय, ते अत्यंत मानी कहेवाय; ( तेवो माणस पराजय पामे, तो पण सामानो गुण मानतो नथी.) तथा क्रूर अध्यवसायवालो; (तेवो माणस पराजय पाम्याथी वैरी थांय ) तथा उर्गतिमां पडता प्राणिनो उद्धार करनार, एवो जिनेश्वर प्रनुए कहेलो जे श्रुतचारित्ररूप धर्म, तेनो अत्यंत क्षेष करनार; ( तेवो माणस पराजय पामे तो पण ते शुद्ध धर्मने अंगीकार करतो नथी, माटे तेनी साथे वाद करवो, ते व्यर्थ प्रयास .) तथा “ मूढ" केतां युक्त अयुक्तना तफावतने नहीं जाणनारो; (तेवो माणस तो वादनो अधिकारीज नथी.) एटला माणसोनी साथे जे तपस्वीए कहेतांसाधुए विवाद करवो, ते "शुष्कवाद" केतां निरर्थक वाद कहेवाय.(अहीं “तपस्वी” शब्दनुं ग्रहण एटला माटे कर्यु ले के, तेवोज माणस हमेशां पोताना उचित प्रवर्तनपणायें करीने, योग्यताथी शास्त्रोने विषे अधिकारी बे; एवं देखाडवा माटे; अने तेथी बीजा अनुचित प्रवृत्तिवाला १६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003686
Book TitleHaribhadrasuri krutanyashtakani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1900
Total Pages220
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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