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त्रयोदशमाष्टक.
१२ए तेज हवे कहे जे. प्रसिझानि प्रमाणानि, व्यवहारश्च तत्कृतः ॥ प्रमाणलक्षणस्योक्ती, ज्ञायते न प्रयोजनम् ॥५॥ अर्थ-प्रत्यद आदिक प्रमाणो प्रसिद्ध , अने ते प्रमाणोथी करेलो व्यवहार पण प्रसिधज के माटे प्रमाणनुं लदाण कहेवामां कई प्रयोजन जणातुं नथी.
टीकानो जावार्थ- प्रसिद्ध एवां जे प्रत्यद आदिक प्रमाणो,ते लोकोमा पोतानी मेलेज प्रसिद्ध के; पण कई प्रमाणना लक्षण बांधनाराऊनांज करेलां नथी. तथा ते प्रमाणथी करेलो एवो जे स्नानपानादिक व्यवहार, ते पण गोवाल, बाल, स्त्री आदिकोमां प्रसिधज जे. माटे " अविसंवादिज्ञानं प्रमाणं" इत्यादि, प्रमाणनुं लक्षण बांधq युक्त नथी; केमके, तेम करवानुं कंपण प्रयोजन जणातुं नथी. __ एवी रीते प्रमाणनु लदाण शोधवामां प्रयोजननो अनाव कह्यो. हवे तेज प्रमाणमां उपायनो अनाव देखाडवा माटे कहे जे.
प्रमाणेन विनिश्चित्य, तमुच्येत न वा ननु ॥ अलदितात्कथं युक्ता,न्यायतोऽस्यविनिश्चितिः
अर्थ- ( वादीने कहे जे के,) ते, तुं प्रमाणे करीने निश्चय करीने कहे ? के नहीं ? वली लदयमां नहीं आववाथी न्यायें करीने तेनो निश्चय शीरीते युक्त कहेवाशे?
टीकानो जावार्थ- अहीं वादीने कहे जे के, ते प्रमाणनु लक्षण, तुं प्रमाणलदणना बनावनारना प्रत्यद आदिक प्रमाणथी निश्चय करीने कहे ने के, ते विना कहे जे? तेमांथी जो तुं पेहेलो पक्ष अंगीकार करीश, तो ते प्रमाणना लक्षणने निश्चय करनारं प्रमाण, तेना लक्षाणथी निश्चित श्रएटुं ? के, अनिश्चित भएलुं बे? अने कदाच निश्चित भएलुंजे,तो तेज अंगीकार करेला प्रमा
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