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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
( चरितसिद्धाणं ) चारित्र से सिद्ध ( अतीदाणागद-वट्टमाण- कालत्तयसिद्धाणं ) भूत, भविष्यत् और वर्तमान तीनों कालों में होने वाले सिद्धों को ( सव्वसिद्धाणं ) समस्त सिद्धों की मैं ( सवा) सदा ( णिच्त्रकालं ) हमेशा / नित्यकाल/ सर्वदा ( अच्चेमि ) अर्चना करता हूँ ( पुज्जेमि ) पूजा करता हूँ ( वन्दामि ) वन्दना करता हूँ ( पामस्समि अच्चमि ) नमस्कार करता हूँ | ( मज्झं ? मेरे ( दुक्खक्खओ ) दुखों का क्षय हो ( कम्मक्खओ ) कर्मों का नाश हो ( बोहिलाहो ) बोधि का लाभ हो ( सुगइगमणं ) सुगति में गमन हो ( समाहिमरणं ) समाधिमरण हो ( जिनगुणसंपत्ति) जिन भगवान् के गुणों की सम्पत्ति (मज्झं ) मुझे ( होउ ) प्राप्त होवे ।
भावार्थ - हे भगवन् ! मैंने सिद्धभक्ति का कायोत्सर्ग किया, उस कायोत्सर्ग में जितने दोष लगे हों उनकी इच्छापूर्वक आलोचना करता हूँ । रत्नत्रय से युक्त, अष्टकर्मों से मुक्त, अष्टगुणों से मंडित लोक के मस्तक पर सिद्ध त्रिकाल सम्बन्धी तपसिद्ध, नयसिद्ध, संयमसिद्ध व चारित्रसिद्ध, सब सिद्धों की मैं सर्वदा अर्चा, पूजा, वन्दना करता हूँ। मेरे दुखों का, कर्मों का क्षय हो, बोधि लाभ हो, सुगति में गमन हो, समाधिमरण हो और जिनगुण रूप सम्पत्ति की मुझे प्राप्ति हो ।
आलोचना
इच्छामि भंते! चरित्तायारो तेरस विहो, परिविहा- विदो, पंखमहव्यदाणि, पंच-समिदीओ तिगुत्तीओ चेदि । तत्य पढमे महखदे, पाणादिवादादो वेरमणं से पुडवि काइया जीवा असंखेज्जा- संखेज्जा, आउकाइया जीवा असंखेज्जा संखेज्जा, ते काइया जीवा- असंखेज्जासंखेज्जा, वाउ- काइया जीवा - असंखेज्जा - संखेज्जा, वणप्फदि- - काइयाजीवा - अणंताणंता, हरिया, बीआ, अंकुरा, छिष्णा-भिष्णा एदेसिं उद्दावणं, परिदावणं, विराहणं उवघादो कदो वा, कारिदो वा, कीरंतो वा, समणुमणिदो तस्स मिच्छा मे दुक्कडं ।
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अन्वयार्थ - ( भंते! ) हे भगवन् ! ( पंच महव्वदाणि) अहिंसा आदि पाँच महाव्रत ( पंच-समिदीओ ) ईर्ष्या आदि पाँच समिति ( य ) और ( तिगुत्तीओ) मन गुप्ति आदि तीन गुप्तियों रूप ( तेरसविहो ) तेरह