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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
की मन से बन्दना करता हूँ, वचन से कीर्तन करता हूँ तथा काय से पूजा करता हूँ, वे मेरे लिए निर्मल केवलज्ञान, बोधि व समाधि को प्रदान करें ।
चंदेहिं णिम्मल यरा, आइच्चेहिं अहिय-पया संता । सायर - मिव गंभीरा सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ||८|| अनलाई - ( चंदेहं से भी मिल ) निर्मलतर
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( आइच्चेहिं ) सूर्य से भी ( अहिय-पया - संता) अधिक प्रभासम्पन्न ( सायरं ) सागर के ( इव) समान ( गंभीरा ) गंभीर (सिद्धा ) सिद्ध भगवान् ( मम ) मुझे ( सिद्धिं ) सिद्धि को ( दिसंतु ) प्रदान करें ।
भावार्थ – जो सिद्ध भगवान् चन्द्रमा से भी निर्मल हैं, सूर्य से भी अधिक प्रभा से युक्त हैं तथा सागर के समान गंभीर हैं, वे मुझे भी सिद्धि को प्रदान करें ।
[ यहाँ तीन आवर्त और एक शिरोनति करके निम्नलिखित मुख्य मंगल पढ़ें
( मुख्य मंगल )
श्रीमते वर्धमानाय नमो नमित विद् विषे । यज्ज्ञानान्तर्गतं भूत्वा त्रैलोक्यं गोष्पदायते ।।१।।
अन्वयार्थ - ( श्रीमते ) जो श्रीमान् है, (नमित-विद्विषे ) नमस्कार कराया है संगम नामक [ देव पर्याययुक्त ] शत्रु को जिन्होंने ऐसे ( वर्धमानाय ) वर्धमान जिनेन्द्र के लिये (नमः) नमस्कार हो ( यज्ज्ञानान्तर्गतं ) जिनके ज्ञान के अन्तर्गत ( भूत्वा ) होकर (त्रैलोक्यं ) तीन लोक ( गोष्पदायते ) गाय के खुर के समान आचरण करता है ।
भावार्थ -- अन्तरंग अनन्त चतुष्टय रूप लक्ष्मी और बहिरंग समव सरण विभूति से सहित होने से जो श्रीमान् हैं, ऐसे वर्धमान स्वामी के चरणों में उपसर्ग करने वाला संगम नामक देव भी नमस्कृत हुआ, जिन महावीर भगवान् के ज्ञान में तीन लोक गाय के खुर के समान झलकता हैं, उन भगवान् के लिये मेरा नमस्कार हो ।