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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
२३ अन्वयार्थ-( च ) और ( जिणवरिंदं ) जिनवरों में श्रेष्ठ ( कुंथु ) कुन्थुनाथ ( अरं ) अरनाथ (च) और ( मल्लिं) मल्लिनाथ (च) और ( सुव्वयं ) मुनिसुव्रत ( च ) और ( णमि ) नमिनाथ ( रिट्टणेमि ) रिष्टनेमि ( तह ) तथा ( पासं ) पारसनाथ ( च ) और ( वट्टमापां ) वर्धमान तीर्थकर को ( वंदामि ) मैं नमस्कार करता हूँ।
भावार्थ—मैं जिनवरों में श्रेष्ठ कुन्थुनाथ, अरनाथ, मल्लिनाथ, मुनिसुव्रतनाथ, नामनाथ, नेमिनाथ, पारसनाथ और महावीर स्वामी तीर्थंकर को नमस्कार करता हूँ।
एवं मए अभित्थुआ विहुय-रय-मला पाहीण-अर-मरणा । चउवीसं पि जिणवरा तिस्थयरा मे पसीयंतु ।।६।।
अन्वयार्थ ( एवं ) इस प्रकार ( मए ) मेरे द्वारा ( अभित्थुआ ) स्तुति किये गये ( विहुय-रय-मला ) कर्मरूपी रजोमल से रहित ( पहीणजर-मरणा) नष्ट कर दिया है जरा और मरण को जिन्होंने ऐसे ( चउवीसं ) चौबीसों ( पि) ही ( जिणवरा ) जिनवर ( तित्थयरा) तीर्थकर (मे) मुझ पर ( पमीयतु ) प्रसन्न होवें।
भावार्थ-घातिया कर्म रूपी रजोमल से रहित, जरा और मरण के नाशक, मेरे द्वारा स्तुति किये गये, ऐसे चौबीसों तीर्थकर जिनेन्द्र भगवान् मुझ स्तुति करने वाले पर प्रसन्न होवें।
किसिय बंदिय महिया एदे लोगोत्तमा जिणा सिद्धा।
आरोग्ग-णाण-लाह दितु समाहिं च मे बोहिं ।।७।।
अन्वयार्थ—इस प्रकार से ( कित्तिय ) कीर्तन किये गये ( वन्दिय ) वन्दना किये गये ( महिया ) पूजे गये ( एदे) ये ( लोगोत्तमा ) लोक में उत्तम ( जिणा ) जिनेन्द्रदेव ( सिद्धा ) सिद्ध-भगवान् ( मे ) मेरे लिये (आरोग्गणाण-लाहं ) ज्ञानावरण कर्म के क्षय से उत्पन्न निर्मल केवलज्ञान का लाभ ( बोहिं ) बोधि ( च ) और ( समाहिं ) समाधि ( दिंतु ) प्रदान करें ।
भावार्थ-मैं, लोक में वचन से कीर्तन किये गये, मन से वन्दना किये गये तथा काय से पूजा किये गये उत्तम अरहंत-सिद्ध भगवन्तों