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वर्धमानचरित
सर्ग : १४ जम्बूद्वीपके विदेह क्षेत्र सम्बन्धी कच्छा देशमें एक हेमद्युति नामका नगर है। वहाँका राजा धनंजय था। उसकी स्त्रीका नाम प्रभावती था। प्रीतिकर देवका जीव इसी राजदम्पतीके प्रियमित्र नामका पुत्र हुआ। प्रियमित्र बड़ा पुण्यशाली था। धनंजयने क्षेमकर तीर्थकरके पादमलमें दीक्षा धारण कर ली और प्रियमित्र प्रजाका पालन करने लगा। इसकी आयुधशालामें चक्ररत्न प्रकट हुआ जिससे यह चक्रवर्ती कहलाने लगा। चौदह रत्नों और नौ निधियोंका स्वामी प्रियमित्र चक्रवर्ती सुखसे समय व्यतीत करने लगा। १-३९ १६८-१७३
एक दिन चक्रवर्ती प्रियमित्र दर्पणमें अपना मुख देख रहा था । शिरमें सफेद बाल देखकर उसे संसारसे विरक्ति हो गई। मोक्षमार्गको जाननेकी उत्कण्ठा लेकर वह क्षेमंकर जिनेन्द्र के समवसरणमें गया।
४०-५३ १७३-१७६
सर्ग : १५ प्रियमित्र चक्रवर्तीने हाथ जोड़कर जिनेन्द्र भगवान्से मोक्षमार्ग पूछा । भगवान्की दिव्यध्वनि होने लगी। उन्होंने कहा कि निर्मल सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ही मोक्षमार्ग है । सम्यग्दर्शनका विस्तारसे वर्णन करते हुए उन्होंने जीवाजीवादि नौ पदार्थोंका स्वरूप कहा। उन्होंने जीवपदार्थका वर्णन करते हुए उसके औपशामिक आदि पाँचभावोंका विस्तार से वर्णन किया।
१-१४ १७६-१७८ अजीवतत्त्वका वर्णन करते हुए उन्होंने उसके पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन पाँच भेदोंका स्वरूप बताया।
१५-२० १७८-१७९ आस्रवतत्त्वका विस्तारसे वर्णन करते हुए उन्होंने आठों कर्मोके पृथक-पृथक आस्रव बतलाये।
२१-६१ १७९-१८६ ____ बन्धतत्त्वके वर्णनमें सर्वप्रथम बन्धके कारणोंका उल्लेख कर उन्होंने आठों कर्मों के चतुर्विध बन्धका निरूपण किया । कर्मोंकी स्थिति तथा अनुभागकी भी चर्चा की।
६२-७९ १८६-१९१ संवरतत्त्वका वर्णन करते हुए उसका स्वरूप तथा उसके कारण गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषहजय और चारित्रका विस्तारसे वर्णन किया।
८०-१६४ १९१-२११ निर्जराका वर्णन करते हुए उसके सविपाक और अविपाक भेदोंका स्वरूप बताया तथा गुणश्रेणीनिर्जराके दश स्थानोंका वर्णन किया।
१६५-१६७ २११-२१२ निर्जराके अनन्तर मोक्षतत्त्वका वर्णन करते हुए उन्होंने बताया कि यह जीव किस गुणस्थानमें किस क्रमसे कर्मोंका क्षय करता हआ चौदहवें गुणस्थानके अन्तमें कर्मों. का सर्वथा क्षय कर मोक्ष प्राप्त करता है। मोक्ष प्राप्त करनेके बाद यह जीव एक समयमें लोकशिखरपर आरूढ हो जाता है। क्षेत्र कालगति आदि अनुयोगोंसे होनेवाली सिद्ध जीवोंकी विशेषताका भी उन्होंने वर्णन किया।
१६८-१९३ २१२-२१६ जिनेन्द्र भगवानका उपदेश सुनकर प्रियदत्त चक्रवर्तीने अरिञ्जय नामक ज्येष्ठ पुत्रको राज्य सौंपा और स्वयं क्षेमंकर जिनेन्द्रके पादमलमें दीक्षा धारण कर ली । अन्तमें वह सहस्रारस्वर्ग में सूर्यप्रभ देव हुआ।
१९४-१९८ २१६-२१७