________________
१३०
वर्धमानचरितम् वसन्ततिलकम्
कृत्वा यथोचितमथात्मजयोविवाहमन्योन्यशङ्खलितबन्धुतयातितुष्टः । स्वस्रा बलेन हरिणा च नभश्चरेन्द्रो मुक्तश्चिरात्कथमपि स्वपुरं जगाम ॥८२ साम्राज्यमित्थमनुभूय चिरं निजेष्टैराकृष्टधोरतितरां विषयैर्मनोज्ञः । शायुधो निजनिदानवशेन रौद्र-ध्यानेन जीवितविपर्ययमाप सुप्तः ॥८३
मालभारिणी
अथ तत्क्षणमेव पीतवासा नरकं सप्तममध्युवास पापात् । अविचिन्त्य दुरन्तघोरदुःखं त्रिगुणैकादशसागरोपमायुः ॥ ८४ तमुदीक्ष्य यशोऽवशेषमात्र बलदेवः सुचिरं विमुक्तकण्ठः । विललाप तथा यथा प्रतेपुर्मुनयोऽपि प्रशमात्मका निशम्य ॥८५ हरिणी
सजल नयनैर्वृद्धव्रातैर्भवस्थितिशंसिभिः
स्थविरसचिवैः सार्द्धं कृच्छ्राच्चिरं प्रतिबोधितः । कथमपि जहौ शौकं मत्वा स्वयं च हलायुधः
स्थितिमशरणां संसारस्य प्रतिक्षणभङ्गुराम् ॥८६ अतिरुचिरा
स्वयंप्रभामनुमरणार्थमुद्यतां बलस्तदा स्वयसुपसान्त्वनोदितैः । इदं पुनर्भवशत हेतुरात्मनो निरर्थकं व्यवसितमित्यवारयत् ॥८७
इस प्रकार अपने पुत्र-पुत्रियों का विवाह कर परस्पर सम्बन्ध को प्राप्त हुई बन्धुता से जो अत्यन्त संतुष्ट था तथा बहिन, बलभद्र, और नारायण ने जिसे चिरकाल बाद किसी तरह छोड़ा था ऐसा विद्याधरों का राजा अर्ककीत अपने नगर को गया ।। ८२ ।। इस तरह अपने इष्ट मनोज्ञ विषयों से जिसकी बुद्धि अत्यन्त आकृष्ट रहती थी ऐसा त्रिपृष्ट चिरकाल तक राज्य सुख का अनुभव कर किसी दिन अपने निदान के कारण आर्तध्यान द्वारा सोता हुआ मृत्यु को प्राप्त हो गया ||८३ ॥ तदनन्तर उसी समय त्रिपृष्ट, पाप के कारण अचिन्तनीय बहुत भारी भयंकर दुःखों से युक्त तथा तैंतीस सागर की आयु सहित सातवें नरक में निवास करने लगा ॥ ८४ ॥ त्रिपृष्ट को मृत देख बलदेव ने चिरकाल तक गला फाड़कर वैसा विलाप किया कि जिसे सुनकर शान्त हृदय मुनि भी दुःखी हो उठे ॥ ८५ ॥
संसार की स्थिति का निरूपण कर बहुत समय बाद बड़ी कठिनाई से
तदनन्तर जिनके नेत्र आंसुओं से पूर्ण थे तथा जो रहे थे ऐसे वृद्धजनों के समूह ने वृद्ध मन्त्रियों के साथ जिसे समझा पाया था ऐसे बलभद्र ने स्वयं ही संसार की स्थिति को शरणरहित तथा क्षणभङ्गुर मान कर किसी तरह शोक छोड़ा || ८६ ॥ उस समय त्रिपृष्ट की स्त्री स्वयंप्रभा, पति की मृत्यु के