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अष्टादेशः सर्गः
उपजाति:
तद्गोपुरेषु प्रथितान्यराजन्माङ्गल्यवस्तूनि घटादिकानि । ततः परौ हारिमृदङ्गनादौ द्वौद्वावभूतां वरनाट्यगेहौ ॥२०
वसन्ततिलकम्
तेभ्यः परावुभयतोऽपि पथामुदग्रौ द्वौद्वौ स्थितौ सुरभिधूपजधूमपृक्तौ । संरेजतुः कनकधूपघटौ मनोज्ञौ नीलाभ्रजालपिहिताविव हेमशैलौ ॥२१
उपजातिः
तत्रैव कल्पेश्वरसेवितानि कल्पद्रुमाणामभवन्वनानि । चतुर्महाशास्थित सिद्धरूपसिद्धार्थवृक्षाङ्कितनामकानि ॥२२ वंशस्थम्
ततः परासीच्चतुरुच्च गोपुरैविराजमानोत्पलवज्जवेदिका । अधित्यकानीय सुरैनिवेशिता पराञ्जनाद्रेरिव तत्र विस्तृता ॥२३
मालभारिणी
दश दश वररत्नतोरणानि द्युतिविचितानि ततः पराण्यभूवन् । सुरतरुकुसुमप्रवालवर्णैविरचितवन्दनमालिकां दधन्ति ॥ २४
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और सन्ध्या काल सम्बन्धी चार महामेघों से सहित समस्त बिजलियों के समूह को विडम्बित कर रहा था ॥ १९ ॥ उन गोपुरों पर घटादिक प्रसिद्ध मङ्गल द्रव्य सुशोभित हो रहे थे । उनके आगे मृदङ्गों के मनोहर शब्दों से सहित दो-दो उत्तम नाटय गृह थे || २० ||
उनके आगे मार्गों के दोनों ओर स्थित, सुगन्धित धूप से उत्पन्न धूम से संयुक्त, बृहदाकार तथा मनोहर दो-दो सुवर्णमय धूप घट सुशोभित हो रहे थे जो ऐसे जान पड़ते थे मानो काले-काले मेघों से आच्छादित सुवर्णमय पर्वत ही हों ॥ २१ ॥ वहीं पर इन्द्रों के द्वारा सेवित कल्प वृझों के वन थे जिनके नाम चार महादिशाओं में स्थित सिंह प्रतिमाओं से युक्त सिद्धार्थं वृक्षों— चैत्य वक्षों के अनुरूप थे ॥ २२ ॥ उसके आगे चार ऊँचे-ऊँचे गोपुरों से सुशोभित नीलमणिमय वज्रवेदिका थी जो ऐसी जान पड़ती थी मानों देवों के द्वारा वहाँ लाकर रक्खी हुई अञ्जन गिरि की लम्बी चौड़ी उत्कृष्ट अधित्यिका - उपरिम भूमि ही हो ॥ २३ ॥ उसके आगे कान्ति से व्याप्त दश दश उत्कृष्ट रत्नमय तोरण थे जो कल्पवृक्षों के फूल, प्रवाल तथा पत्तों से निर्मित वन्दन मालाओं को धारण कर रहे थे || २४ || उन्हीं उत्कृष्ट रत्नमय तोरणों से अन्तरित अर्थात् उनके बीच-बीच में
१. दधाति न० ।