Book Title: Vardhaman Charitam
Author(s): Ratnachandra Muni, Chunilal V Shah
Publisher: Chunilal V Shah

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Page 335
________________ २८८ वर्धमानचरितम् रुन्धन् दिशो दश नवाम्बुद रूढवंशगहनान्धकारितं रूपस्पर्शी वर्णगन्धौ रसश्च रूपं यौवनमायुरक्षनिचयो रेजे परं सहजरम्यतया रेजिरे तच्चमूचारु रौप्ये गिरौ धनदरक्षित रौप्यो गिरिस्तत्र नभश्चराणां लक्ष्मीप्रतापबलशौर्य लक्ष्मीर्मुखे हृदि धृति लग्ने गुरौ शुभदिने लतालये नन्दनकाननान्ते ललनामुखाम्बुरुहगन्धवहो ललितेन विलासिनीजनेन लीला महोत्पलमपास्य लुलाव मौर्वीभिरमा शिरांसि लोकजीवनकरस्थितियुक्तं लोकस्याथ यथा जिनोदित लोकाधिका नमिकुल लोकानामिति स मनोरथा लोचनोद्गतविषानलप्रभा लोहजालमलिनील लौकान्तिकामरैरेत्य १७७४।२४० वररत्नमयीं विधुप्रभाख्यां ८1५३।९७ वरवाङ्मयेन तपसा च १५।१८।१७८ वर्द्धमानचरित्रं यः १५९०११९३ वल्लभं स्वमपहाय सुरक्ता १७२६।२३२ वल्लभं प्रणयिनामथान्तरे ३१५९।२७ वल्लभं समवलोक्य सदोषं ६।६९।७५ वसुनन्दकृपाणपाणिभिः १२।२।१४३ वहति को हृदयेन भवद्गुणान् वाचमेवमाभिधाय सस्फुरां वाद्यानां ततधनरन्ध्रनद्ध ६।८।६४ वामाधिमादाय करेण गाढ वारणे कलकलाकुलीकृते १।६०।११ वारुणीरतमुदीक्ष्य पतङ्गं १२।३०।१४७ विकसितेऽभिनवेऽपि महोत्पले ५।४२१५३ विकिरन्नवपारिजातगन्धं .. ४।२७।३६ विकृति भजते न जानुचित् १७।१२।२३० विक्षिपन्कुमुदकेसररेणून ९।५२।१०९ विगतहानि दिवानिशमुज्ज्वलं १३।२०।१५६ विगतभूषणवेषपरिग्रहं १५।२९।१९५ विगाह्यमाना युगपच्चतस्रो ६॥४१॥६९ विगलन्मदवारिनिर्झरा १४।३५।१७३ विचार्य कार्यान्तरमित्युदारधीः ८।३७।९४ विचित्रमणिरश्मिभि ८.६५।९८ विजयस्य च सिंहवाहिनी ३१६५।२८ विजितान्यनरेश्वरोऽपि राजन् विजिताखिलभूतलो १३।१४।१५५ विज्ञाय मोक्षपथमित्यथ ७।२२।७८ विदलितवदनं तमुष्ट्रिकान्ते १३।१३।१५५ विदार्य नाराचपरम्पराभिः ८७६।१०० विद्या मया प्रपठितेत्यसगाह्वयन १७।९५।२४३ विद्याप्रभावरचिताद्भुत १५।८६।१९२ विद्यावलिप्तहृदयः शरणातुराणां १४।४४।१८३ विद्यानुभावेन परेण केल्यां १८।१६।२५२ विद्युल्लतेवाभिनवाम्बुवाहं १६।२।२१८ विधाय पूजां महतीं जिनानां ४।१७।३५ विधिवत्प्रजागरवितर्क १७.११२।२४६ १६।४४।२२३ १८।१०३।२६८ १३।४५।१६० ८।१४।९१ १३१७०।१६४ ७१७७३८५ १८१६८।२६२ ८।२५।९२ १४।३१।१७२ ९।२६।१०६ ८।६६।९८ १३।३५।१५८ १८।७३।२६३ १७४१२३।२४७ ७/२५७८ १३१६६।१६४ १८.५६।२६० १८७२।२६३ १२।२१।२४६ ७।६६३८४ १०१६९।१२८ ४।९३१४५ ७।५८८३ ४।४२०३८ ४।१४।३४ १५।१९३।२१६ ११।१७।१३४ ९।७०।११२ १८१०५।२६८ ६।४।६४ ६।३०।६८ १२।६।१४३ ११४४७ ५।२५।५० १६।२४।२२१ वक्षसि श्रियमुदीक्ष्य वचसा परुषेण वर्धते वज्रभूषितकरो भुवि राजा वज्रसारमिदमेव मद्वपुः वटवृक्षमथैकदा महान्तं वदन्ति जात्यादिमदाभिमान वदन्ति देवस्थ सरागसंयम वनात्परा वज्रमयी नभस्तले वपुरादधद्विविधमाशु वपुरस्य पुरा विवृत्य जुष्टं

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