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पारिभाषिक शब्द संग्रह
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वीचार १५।१५३।२०८ = अर्थ व्यञ्जन और योगोंमें शौच १५।८४।१९२ = दश धर्मोमेंसे एक धर्म, लोभसंक्रान्ति-परिवर्तन होना।
का त्याग करना। वेद्य १५।७१।१८८ = सुख और दुःखका अनुभव श्रुत ३।५४।२७ = मतिज्ञानके बाद होनेवाला एक
करानेवाला एक कर्म, इसके सद्वेद्य और असद्वेद्य विशिष्ट ज्ञान । यह अक्षरात्मक और अनक्षयह दो भेद हैं।
रात्मकके भेदसे दो प्रकारका है। अक्षरात्मक वैयावृत्ति १५।४७।१८३ = सोलह कारण भावनाओं- श्रुतज्ञान द्वादशाङ्गमें विस्तृत है। मेंसे एक भावना। आचार्य उपाध्याय आदि दश श्रुतवात्सल्य १५।४७।१८३ = सोलह कारण भावप्रकारके मुनियोंकी सेवा करना वैयावत्ति या नाओंमें एक भावना-सहधर्मा जनोंमें धार्मिक वैयावृत्त्य है।
स्नेह रखना। व्युपरतक्रियानिति १५।१५११२०८ = शुक्लध्यान- षट्कर्म ३१५५।२७ = असि, मषी, कृषि, शिल्प,
का एक भेद। यह भेद चौदहवें गणस्थानमें वाणिज्य और विद्या ( गायन वादन नर्तनकला) - होता है।
ये छः कर्म हैं। इनसे कर्मभूमिमें मनुष्योंकी आव्रत ११६७।१२ = अभिप्रायपूर्वक हिंसादि पापोंके
जीविका चलती है। त्यागको व्रत कहते हैं । ये अणुव्रत और महाव्रत षड्वर्ग ४।२४।३६ = काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद के भेदसे दो प्रकारके हैं । दोनोंके अहिंसा, सत्य, और मात्सर्य ये छह षड्वर्ग कहलाते हैं। अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रह परिमाण तथा षष्ठतप १५।१३६।२०४ = छठवाँ तप-कायक्लेश, परिग्रहत्यागके नामसे पाँच-पाँच भेद है।
आतापनादियोग धारण करना । शक्तितस्तपस्या १५६४६।१८३ = सोलह कारण षष्ठोपवास = १७११२८।२४८ वेला--दो दिनका .
भावनाओंमें एक भावनाशक्तिके अनुसार तप- उपवास । श्चरण करना।
सततं ज्ञानोपयोग(अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग)१५/४६।१८३ शक्तितस्त्याग १५/४६।१८३ = सोलह कारणभाव
= सोलह कारण भावनाओंमें एक भावनानाओंमें एक भावना-शक्तिके अनुसार दान
निरन्तर ज्ञानमय उपयोग रखना।
सदृष्टिसुधा २।१५।१५ = सम्यग्दर्शनरूपी अमृत । शिक्षक १८१९१।२६६ = उपाध्याय- पढ़ानेवाले सद्वेद्य १५।२८।१८० = वेदनीय कर्मका एक भेद, इसके साधु ।
उदयमें सुखका अनुभव होता है। शीलवतेष्वव्यभिचारचर्या ( शीलवतेष्वनतिचार ) सन्निपातोद्भव (सान्निपातिक भाव)१५।१३।१७८ =
१५।४६।१८३ = सोलह कारण भावनाओंमें एक औपशमिकादिभावोंके सम्बन्धसे होनेवाला भाव । भावना । शील और व्रतोंमें अतिचार-दोष नहीं समवसरण १८।१।२४९ = तीर्थकरकी धर्मसभा । लगाना।
समारम्भ १५।२५।१७९ = संकल्पित कार्यकी सामग्री शुक्लध्यान १५।१४८।२०७ = एक उच्च कोटिका एकत्रित करना ।
ध्यान, यह मुनियोंके ही होता है। वह भी अष्टम समिति १५।८२।१९२ = प्रमादरहित प्रवृत्ति, इसके गुणस्थानसे लेकर उपरितनगुणस्थानवर्ती मुनियों ईर्या, भाषा, एषणा, आदान निक्षेपण और व्युके। इसके पृथक्त्ववितर्क, एकत्ववितर्क, सूक्ष्म- त्सर्ग अथवा प्रतिष्ठापना ये पाँच भेद हैं। क्रियाप्रतिपाति और व्युपरतक्रियानिवति ये चार समुद्घात १५।१६२।२१० = मूल शरीरको न छोड़भेद है।
___ कर आत्मप्रदेशोंका बाहर फैलना । इसके आहा
देना।