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वर्धमानचरितम्
ज्ञानावृति १।७१।१८८ = ज्ञानगुणको आवृत करने धर्म १५ | १४|१७८ = जीव और पुद्गलकी गति में वाला एक कर्म । सहायक एक अमूर्त द्रव्य ।
तप १५।८४।१९२ = इच्छाका निरोध करना, इसके धर्म १५ । ८२ । १९२ = आत्मस्वभाव, इसके उत्तम क्षमा अनशन आदि १२ भेद हैं । आदि १० भेद हैं ।
तरल १७।६६ । २३९ = हारका मध्य मणि । तीन अज्ञान १५।११।१७७ = कुमति, कुश्रुत और अवधिज्ञान ।
तीन लिङ्ग ११।१२।१७७ = स्त्री, पुरुष और नपुंसक नाम १५।७१।१८८ = जीवकी नारक आदि अवस्था
भाववद ।
ओंमें कारणभूत एक कर्म ।
तीर्थकृत् ३।५०।२६ = तीर्थंकर |
तीर्थंकरनाम १५ | ४९।१८३ = नामकर्मका एक भेद । तृतीयतप १५।१३३।२०३ = वृत्ति परिसंख्यान नामक
निर्जरा १५०५।१७६ = कर्मपरमाणुओंका एक देश क्षय होना ।
तप ।
तृतीयवेद्य १५।४०।१८२ = नपुंसक वेद । त्याग १५।८०।१९२ = दान | त्रिदोष १५।९५।१९४ = वात, पित्त और कफ । दण्ड १५।१६।२१० = केवलिसमुद्घातका एक भेद जिसमें आत्माके प्रदेश अधोलोकसे लेकर ऊर्ध्वatra अन्त तक दण्डके आकार फैलते हैं । दिविज प्रमदा १८।३५।२५५ = कल्पवासी देवोंकी देवाङ्गनाए ं—प्रथम स्वर्गसे लेकर सोलहवें स्वर्ग तककी स्त्रियाँ |
दृष्टिवृति १५।७१।१८८ = दर्शनगुणको आवृत करने वाला दर्शनावरण कर्म ।
दृष्टिमोह १५। २९।१८० = दर्शनमोहनीय कर्म । द्विगुणित पंक्तिसागरोपम १५।७३ | १८९ = बीस
सागर प्रमाण ।
द्विपारिपीठ १८।४१।२५६ = सिंहासन । द्विविधपरिग्रह २।१६।१५ = दोनों प्रकारका परि
नवपदार्थ १५।५।१७६ = जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष ये नो पदार्थ हैं।
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ग्रह — अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग ।
द्विषट्प्रकार तप १३।६९।१५३ = बारह प्रकारका तप - १. अनशन, २. ऊनोदर, ३ वृत्तिपरिसंख्यान, ४. रसपरित्याग, ५. विविक्त शय्याशन ६. कायक्लेश, ७. प्रायश्चित्त, ८. विनय, ९. वैयावृत्य, १०. स्वाध्याय, ११. व्युत्सर्ग और १२. ध्यान ।
निह्न ुति १५।२६।१८० = किसी कारणवश अपने ज्ञानको छिपाना ।
नीचगोत्र १५०४९।१८३ = नीच कुलमें उत्पत्तिका कारण एक कर्म (गोत्र कर्म) । पञ्चमकल्याण १८।१०१।२६७ = निर्वाणकल्याणकतीर्थ करके मोक्ष जानेका उत्सव । पञ्चलब्धि १५।११।१७७ = दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य ये पाँच लब्धियाँ हैं । पञ्चमीगति २।३४।१७ = मोक्ष | पराभ्युपेक्षा ( माध्यस्थ्यभाव ) १५।६०।१८६ = उद्दण्ड मनुष्यों में उपेक्षाका भाव । परिग्रह १५।५२।१८४ = धनधान्यादिक वस्तुओंमें
ममताभाव ।
परिदेवन १५।२७।१८० = करुण विलाप करना । परिहारविशुद्धिसंयम १७।१२७०२४८ = संयमका
एक भेद - इस संयम धारक मुनिके द्वारा किसी जीवका घात नहीं होता । यह छठवें और सातवें गुणस्थान में होता है ।
परिषहजय १५।८२।१९२ = क्षुधा, तृषा आदिको
समताभावसे सहन करना । इसके २२ भेद हैं । पाप १५।५।१७६ = अशुभभाव -नो पदार्थोंमें एक पदार्थ |
पुण्य १५। ५ । १७६ = शुभभाव – नौ पदार्थोंमें एक पदार्थं ।