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आज्ञाविचय १५।१४४।२०६ = धम्र्म्यध्यानका एक
भेद ।
आन्तर तप १६ । ३१ । २२२ = प्रायश्चित्त आदि अन्तरङ्ग तप ।
पारिभाषिक शब्द संग्रह
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आर्जव १५८४११९२ एक धर्म-कपट नहीं करना । आवश्यकाहानि १५०४८।१८३ एकभावना-समता वन्दना आदि आवश्यक कार्यो म्यूनता नहीं
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करना ।
आयु १५।७१।१८८ = जीवको नारकी आदिके शरीरमें रोकनेवाला एक कर्म ।
आरम्भ १५।२५।१७९ = संकल्पित कार्यको करने क्षान्ति १५ ८४ । १९२ = क्रोध के कारण उपस्थित होने
लगना ।
पर भी क्रोध उत्पन्न नहीं होना । गणधर १८।१०।२६६
आध्यान १५।१४२२०५ तिर्यञ्च आयुके बन्धका कारण – एक खोटा ध्यान ।
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प्रमुख श्रोता । गति १५।८।१७७ - जीवकी अवस्था विशेष, इसके नरक आदि चार भेद हैं । गन्धकुटी १८०३३४२५५ समवसरणका वह मध्यभाग जहाँ जिनेन्द्र भगवान् विराजमान होते हैं । गुप्ति १५८२।१९२ मन, वचन और कायका निरोध करना, इसके मनोगुप्ति आदि तीन भेद हैं । गो १५।१९२।२१६ = वाणी, किरण । गोत्र १५०७१।१८८ = उच्च नीच व्यवहारमें कारणभूत एक कर्म ।
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घातिकर्म १५।०६।१९० ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये चार कर्म । चक्रभृत् २०५६।२७ चक्रवर्ती, जो छलण्डके स्वामी होते हैं ।
चतुर्थत १५।१३४ २०३ - रसपरित्याग तप ।
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चरित्र १५८२।१९२ संसारवर्धक कारणोंसे निवृति होना। इसके सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्म सांपराव और यथाख्यात मे पाँच भेद हैं ।
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आसादन १५।२६।१८० = दूसरेके द्वारा प्रकाशित होनेवाले ज्ञानको काय और वचनसे रोकना | आस्रव १५।५।१७६ = आत्मामें कर्मप्रदेशों का आना । ईर्यापथ आत्रव १५।२२।१७९कपावरहित जीवोंका आसय । यह ११, १२ और १२ गुणस्थान में होता है । उच्चगोत्र १५।५०।१८४ - गोत्रकर्मका एक भेद, जिससे जीव उच्च कुलमें उत्पन्न होता है । उपघात १५०२६०७३ = किसीके प्रशस्तज्ञानमें दूषण
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लगाना ।
एकत्ववितर्क १५।१४९/२०७ शुक्लध्यानका एकभेद ।
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कनकावली १६।४६।२२४ = मुनियोंका एक तप । इसकी विधि व्रतविधानके परिशिष्ट में द्रष्टव्य है। कपाट १५।१६३।२१० केवलि समुद्घातका एक भेद । कल्प ३।६९।२८ - सौधर्म आदि सोलह स्वर्ग । कल्पनगावली १८/३९।२५६ = = कल्पवृक्षोंकी
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पंक्ति | कल्यता १५/१०१।१९६ - नीरोगता । कषाय १५।६२।१८६ = आत्मस्वभावको कलुषित
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करने वाले क्रोध, मान, माया और लोभरूप परिणाम |
कषायवेद्य १५।३१।१८० मोहनीय कर्मका एक भेद, इसके १६ भेद होते हैं ।
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कारुण्य १५।६०।१८६ = एक भावना – दुःखी जीवों-. पर करुणाभाव होना ।
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तीर्थकरके समवसरण के
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चारण ३।२४।२४ - चारणऋद्धि-आकाशमें चलनेकी शक्ति से युक्त मुनिराज ।
चारित्रमोह १५/३०।१८० = मोहनीय कर्मका एक भेद ।
छेदोपस्थापना १५।१२६।२७१ चारित्रका
भेद ।
जिनागमभक्ति (प्रवचनभक्ति) १५४७११८३ - एक
भावना ।
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एक