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अष्टादशः सर्गः
२५७ मालभारिणी इति धाम जिनाधिपस्य तस्योभयतो द्वादशयोजनं व्यराजत् । अमरेन्द्रफणीन्द्रभूमिपालैरपरं कोणमिवान्तरं त्रिलोक्याः ॥४३
. शार्दूलविक्रीडितम् पौष्पी वृष्टिरनुद्रुता मधुकरैः श्वेतीकृताशानना
तस्याने सतमोलवेव दिनजा ज्योत्स्ना पपाताम्बरात् । संद्रष्टुं तमिवाह्वयन जिनपति भव्यांस्त्रिलोकीगतान्
त्रैलोक्योदरमानशे श्रुतिसुखः खे दुन्दुभीनां ध्वनिः ॥४४ क्रान्ताम्भोदपथैरनेकविटपै रुन्धन्दिशा'मन्तरं
नानापुष्पनवप्रवालसुभगो मूर्तः स्वयं वा मधुः । एकीभूय कुरुद्रुमोत्कर इव द्रष्टुं तमभ्यागतो
रक्ताशोकतरुः सुराञ्चिततलोऽप्यासीत्पवित्रः परम् ॥४५ चक्रीकृत्य सुरैरुपर्युपरि वा क्षीराम्बुराशेः पयो
विन्यस्तं गगने त्रिधा परिमितं स्वस्य प्रभाख्यातये । तस्येन्दुद्युतिशुभ्रमप्यविरतं भव्यौधरागावहं
त्रैलोक्येशसुलाञ्छनं भगवतश्छत्रत्रयं दिद्युते ॥४६ . सुशोभित मानस्तम्भ का अन्तर छह योजन था ऐसा आर्यपुरुष कहते हैं॥४२॥ इस प्रकार उन जिनेन्द्र भगवान् का वह समवसरण दोनों ओर-पूर्व पश्चिम और उत्तर दक्षिण बारह योजन प्रमाण था तथा देवेन्द्र, नागेन्द्र और नरेन्द्रों से व्याप्त वह समवसरण ऐसा सुशोभित हो रहा था मानों तीन लोक का दूसरा ही मध्य हो ॥ ४३ ॥
भ्रमर जिसका अनुसरण कर रहे थे, जिसने दिशाओं के मुख को सफ़ेद कर दिया था और जो अन्धकार के कणों से सहित दिन में प्रकट हुई चाँदनी के समान जान पड़ती थी ऐसी पुष्प वष्टि उन भगवान् के आगे आकाश से पड़ रही थी। जो उन जिनेन्द्र के दर्शन करने के लिये त्रिलोकस्थित भव्यजीवों को मानों बुला रहा था ऐसा आकाश में बजने वाले दुन्दुभी बाजोंका श्रति सुखद शब्द तीनों लोकों के मध्य में व्याप्त हो गया था ॥४४॥ आकाश को व्याप्त करने वालो अनेक शाखाओं से जो दिशाओं के अन्तराल को रोक रहा था, जो नाना प्रकार के पुष्प तथा नवीन पल्लवों से सुन्दर था तथा ऐसा जान पड़ता था मानों स्वयं मूर्तिधारी वसन्त ही हो अथवा उन भगवान् के दर्शन करने के लिये एकरूप रखकर आया हुआ कुरुद्रमों-उत्तभोगभूमि के कल्पवृक्षों का समूह ही हो ऐसा लाल अशोक वृक्ष वहाँ था। वह अशोक वृक्ष सुराञ्चिततल-मदिरा से सुशोभिततल वाला होता हुआ भी पवित्र था यह विरुद्ध बात थी। ( परिहार पक्ष में जिसका तल--नीचे का भूमितल सुराञ्चित देवों से सुशोभित होने पर भी पवित्र था ॥ ४५ ॥ जो चन्द्रमा
१. मान्तरं म०।