________________
अष्टादशः सर्गः वसन्ततिलकम्
एभिः समं त्रिभुवनाधिपतिविहृर्त्यांत्रशत्समाः सकलसत्त्वहितोपदेशी । पावापुरस्य कुसुमाचितपादपानां रम्यं श्रियोपवनमाप ततो जिनेन्द्रः ॥९७
शार्दूलविक्रीडितम्
कृत्वा योगनिरोधमुज्झितसमः षष्ठेन तस्मिन्वने
व्युत्सर्गेण निरस्य निर्मलरुचिः कर्माण्यशेषाणि सः । स्थित्वेन्दावपि कार्तिकासितचतुर्दश्या' निशान्ते स्थिते
स्वातौ सन्मतिराससाद भगवान्सिद्धि प्रसिद्धश्रियम् ॥९८ मन्दाक्रान्ता
अव्याबाधं पदमतिशयानन्तसौख्यं जिनेन्द्रे
तस्मिन्यते तनुमनुपमां पूजितुं तस्य पूताम् । भक्त्य जग्मुविबुधपतयो विष्टरोत्कम्पनेन
ज्ञात्वा सर्वे द्रुतमनुगतास्तं प्रदेशं स्वसैन्यैः ॥९९ वसन्ततिलकम्
अग्नीन्द्रमौलिवररत्नविनिर्गतेऽग्नौ कर्पूर लोहहरिचन्दनसारकाष्ठैः । क्षपद वातकुमारनाथैरिन्द्रा मुदा जिनपतेर्जुहुवुः शरीरम् ॥१०० स्रग्धरा
काल्पाः कल्याणमुच्चैः सपदि जिनपतेः पञ्चमं तस्य कृत्वा भूयानोsस्य भक्त्या ध्रुवमनतिचिरात्सिद्धिसौख्यस्य सिद्धिः ।
२.६७
पदार्थों के ज्ञाता थे ॥ ९६ ॥
तदनन्तर तीनों लोकों के अधिपति तथा समस्त जीवों को हित का उपदेश देने वाले वीर जिनेन्द्र, इन सबके साथ तीस वर्षों तक विहार कर पावापुर के उस उपवन में पहुँचे जो फूले हुए वृक्षों की शोभा से रमणीय था ॥ ९७ ॥ योग निरोध कर जिन्होंने समवसरणरूप सभा को छोड़ दिया था, जो वेला का नियम लेकर उस वन में कायोत्सर्ग मुद्रा से स्थित थे तथा निर्मल कान्ति अथवा श्रद्धा से युक्त थे ऐसे सन्मति भगवान्, समस्त कर्मों को नष्ट कर कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि के अन्त भाग में जब कि चन्द्रमा स्वाति नक्षत्र पर स्थित था, प्रसिद्ध लक्ष्मी से मुक्त सिद्धि को प्राप्त हुए ॥ ९८ ॥
जब वे जिनेन्द्र अतिशय पूर्ण अनन्त सुखों से सहित अव्याबाध पद को प्राप्त हो गये - मोक्ष चले गये तब उनके अनुपम और पवित्र शरीर की पूजा करने के लिये इन्द्र लोग सिंहासनों के कम्पित होने से सब समाचार जान कर शीघ्र ही उस स्थान पर आये। उस समय वे इन्द्र अपनीअपनी सेनाओं से अनुगत थे ।। ९९ ।। अग्निकुमार देवों के मुकुट सम्बन्धी उत्कृष्ट रत्नों से जो
१. चतुर्दश्यां म० ।