________________
अष्टादशः सर्गः
२६५ मञ्जुभाषिणी अपनीतकण्टकतणोपलादिका धरणीतले सपदि योजनान्तरे । सुरभीकृताखिलदिगन्तराः सुखा मरुतो बवुः पथि पुरो जिनेशिनः ॥८५
वंशस्थम् अनभ्रवृष्टिः सुरभिर्महीरजः शमं निनायाकृतपङ्कविभ्रमा। अधारितास्तस्य पुरः स्वयंममुर्ध्वजाः समन्ताद्गगने मरुच्चलाः ॥८६
द्रुतविलम्बितम् मणिमयाब्दतलप्रतिमा मही विविधरत्नमयी समजायत । सकलसस्यचयो ववृधेऽवनौ विविधपक्षिमृगैरपि तत्यजे ॥८७
शालिनी पादन्यासे सप्त पद्माः पुरस्तात्पश्चाच्चासन्सप्त तस्यान्तरिक्षे। अग्ने देवैर्वाद्यमानानि भक्त्या मन्द्रमन्द्रं दिव्यतूर्याणि नेदुः ॥८८
उपजातिः अग्रेसरं व्योमनि धर्मचक्रं तस्य स्फुरद्धासुररश्मिचक्रम् ।
द्वितीयतिग्मद्युतिबिम्बशङ्कां क्षणं बुधानामपि कुर्वदासीत् ॥८९ वाले उस इन्द्र के लिये जोवादि पदार्थों का यथार्थस्वरूप कह कर उन वीर जिनेन्द्र ने भव्यजीवों को मुक्ति के मार्ग में स्थित करने के लिये इस भाँति विहार किया ॥ ८४ ॥ पृथिवीतल पर शीघ्र ही एक योजन के भीतर जिनेन्द्र भगवान् के आगे-आगे मार्ग में ऐसी सुखदायक वायु बहने लगी जिसने कण्टक तृण तथा पाषाण आदि को दूर हटा दिया था तथा समस्त दिशाओं के अन्तराल : को सुगन्धित कर दिया था ॥ ८५ ॥ बिना मेघ के होने वाली सुगन्धित वृष्टि ने पृथिवी की धलि को शान्त तो कर दिया था परन्तु कीचड़ का विभ्रम नहीं किया था। उनके आगे आकाश में सब ओर फहराती हुई ऐसी ध्वजाएँ स्वयं चल रही थी जो किसी के द्वारा धारण नहीं की गई थी ॥ ८६ ॥ नाना प्रकार के रत्नों से निर्मित भूमि मणिमय दर्पण तल के तुल्य हो गयी। पथिवी पर समस्त धान्यों का समूह वृद्धि को प्राप्त हो गया तथा विविध प्रकार के पक्षियों और मृगों ने उसे छोड़ दिया ॥ ८७ ॥ भगवान् जहाँ पैर रखते थे उसके आगे और पीछे सात-सात कमल रहते थे तथा देवों के द्वारा आकाश में भक्ति से बजाये जाने वाले दिव्य बाजे गम्भीर शब्द कर रहे थे भावार्थ-विहार काल में एक कमल भगवान् के पैर के नीचे रहता था तथा सात-सात कमल आगे-पीछे रहते थे इस प्रकार पन्द्रह कमलों की पन्द्रह पडिक्तयाँ थीं। सब पङिक्तयों के मिल कर २२५ कमल दिखाई देते थे । भगवान् का यह विहार आकाश में होता और आकाश में ही यह कमलों का समूह दिखाई देता था ॥ ८८ ॥ जो उन भगवान् के आगे-आगे चल रहा था, तथा । १. विदितपक्षमगैरपि म०ब० ।