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अष्टादशः सर्गः
उपजातिः
तेषु व्यराजन्मणिदामघण्टा हिरण्यजालादिकलम्बनानि । मुक्ताकलापान्तरितानि दृष्टेः काराविधायीनि निरीक्षकाणाम् ॥१० तद्गोपुरान्तर्गतचारुवीथीद्विपार्श्वयोरुच्छ्रितनाटयशाले । द्वे द्वे मृदङ्ग ध्वनिनेव भव्यान् द्रष्टुंविभातः स्म समाह्वयन्त्यौ ॥११ प्रहर्षिणी
Maratभयविभागयोस्ततः स्युश्चत्वारि त्रिदशजनोपसेवितानि । पिण्डयालीविषमपलाशचम्पकाः कीर्णानि प्रमदवनान्यनुक्रमेण ॥१२
स्रग्धरा
कुर्वाणाः कर्णपूरश्रियमिव विटपैरायतदिग्वधूनां
चञ्चद्वालप्रवालैः प्रतिकृतिममलां धारयन्तो जिनानाम् । चत्वारो यागवृक्षाः प्रतिकुसुमजुषामुज्झिताम्भोजखण्डैः
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पिण्डाद्यास्तेष्वभूवन्समदमधुकृतां मण्डलैण्ड्यमानाः ॥ १३
मन्दाक्रान्ता
तिस्रस्तिस्रो विमलसलिलास्तत्र वाप्यो विरेजु वृत्तत्र्यत्रप्रकटचतुररत्रा'कृतीर्धारयन्त्यः । नन्दा कीर्णा कनककमलैर्नन्दवत्युत्पलौघै र्मेघानीलैः स्फटिककुमुदैर्नाम नन्दोत्तरा च ॥१४ अपहरण करने वाली विधि से स्थापित प्रत्येक एक सौ आठ एक सौ आठ प्रकार के निर्मल अङ्कर तथा चामर आदि मङ्गल द्रव्यों का समूह, भगवान् का वैभव प्रदर्शित करने के लिये प्रकट हुआ था ॥ ९ ॥ उन गोपुरों में, जिनके बीच-बीच में मोतियों के गुच्छे लगे हुए थे तथा जो दर्शकों की दृष्टि को कैद कर रहे थे ऐसे, मणिमय मालाएँ, घण्टा तथा सुवर्णं की जाली आदि लटकने बाले पदार्थ सुशोभित हो रहे थे ॥ १० ॥ उन गोपुरों के भीतर स्थित सुन्दर गली के दोनों पार्श्वभागों में दो-दो ऊँची नाट्य शालाएँ थीं जो मृदङ्गध्वनि से भव्यजीवों को दर्शन करने के लिये बुलाती हुई-सी सुशोभित हो रही थीं ॥ ११ ॥
उसके आगे चारों दिशाओं में चार वीथियां हैं उन वीथियों के दोनों भागों में देवों से उपसेवित चार प्रमदवन थे जो अनुक्रम से अशोक, सप्तपर्ण, चम्पक और आम्रवृक्षों से व्याप्त थे ||१२| उन प्रमदवन में अशोक आदि चार चैत्यवृक्ष थे । वे चैत्यवृक्ष नये-नये पल्लवों से सुशोभित लम्बी शाखाओं के द्वारा मानों दिशारूपी स्त्रियों के कर्णाभरण की शोभा को सम्पन्न कर रहे थे, जिनेन्द्र भगवान् की निर्मल प्रतिमाओं को धारण कर रहे थे, तथा कमलवन को छोड़कर प्रत्येक पुष्प पर बैठे हुए मदमाते भ्रमरों के समूह से सुशोभित हो रहे थे ।। १३ ।। उन वनों में निर्मल जल से भरी हुई तीन-तीन वापिकाएँ थीं जो गोल त्रिकोण और चतुष्कोण आकृति को धारण करती थीं । नन्दा,
१. चतुरास्याकृती म० ।