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वर्धमानचरितम्
रुचिरा ततः परा विमलजलाम्बुखातिका सवेदिका विकचसिताम्बुजैश्चिता। सतारका सुरपदवी सुरैः समं व्यराजत स्वयमिव भूमिमागता ॥५
मालभारिणी सुमनोन्वितमप्यपेतबोधं बहुपत्राकुलमप्यसैन्यमासीत् । विपरीतमपि प्रशंसिवल्लीवनमाभोगि ततः परं समन्तात् ॥६
प्रहर्षिणी प्राकारः कनकमयस्ततः परोऽभूत्संयुक्तः सुरजतगोपुरैश्चतुभिः । आयातो भुवमचिरप्रभासमूहः स्थातुं वा चतुरमलाम्बुदैरुपेतः ॥७
शार्दूलविक्रीडितम् प्राच्यां गोपुरमुच्छ्रितं विजयमित्यासीदभिख्यां दधद् ।
याम्यां यद्दिशि रत्नतोरणयुतं तद्वैजयन्तामिधम् । वारुण्यां कदलीध्वजैरविकलैः कान्तं जयन्ताभिधं . कौबेर्यामपराजिताख्य'ममरैराकीर्णवेदीतटम् ॥८
वसन्ततिलकम् तद्गोपुरोच्छितिविराजिततोरणानां नेत्रापहारिविधिनोभयभागवति ।
माङ्गल्यजातममलाङ्करचामरादि प्रत्येकमष्टशतमाविरभूद्विभूत्यै ॥९ पड़ते थे।। ४ ।। उसके आगे निर्मल जल से सहित, वेदिका से युक्त तथा खिले हुए सफ़ेद कमलों से व्याप्त जल की परिखा थी जो ऐसी सुशोभित हो रही थी मानों देवों के साथ स्वयं भूमि पर आई हुई ताराओं से सहित सुरपदवी-आकाश ही हो ॥ ५॥ उसके आगे चारों ओर घेर कर विस्तृत लता वन था जो सुमनोन्वित-विद्वानों से सहित होकर भी अपेतबोध-ज्ञान से रहित था ( परिहार पक्ष में फूलों से सहित होकर भी ज्ञान से रहित था ) बहुपत्राकुल-बहुत वाहनों से सहित होकर भी असैन्यसेना से रहित था (परिहारपक्ष में बहुत पत्तों से सहित होकर भी सेना से रहित था) और विपरीत-विरुद्ध आचार वाला होकर भी प्रशंसि-प्रशंसा से सहित था (परिहार पक्ष में पक्षियों से व्याप्त होकर भी प्रशंसा से सहित था) ॥६॥
उसके आगे चाँदी के चार गोपुरों से सहित सुवर्णमय प्रकार था जो ऐसा जान पड़ता था मानों चार सफेद मेघों से सहित बिजलियों का समूह पृथिवी पर निवास करने के लिये आ गया हो ॥ ७॥ पूर्व दिशा में जो ऊँचा गोपुर था वह 'विजय' इस नाम को धारण कर रहा था । दक्षिण दिशा में जो रत्नों के तोरणों से सहित गोपुर था वह 'वैजयन्त' नाम वाला था। पश्चिम दिशा में अखण्ड कदली ध्वजाओं से मनोहर जो गोपुर था वह 'जयन्त' नाम से सहित था और उत्तर दिशा में देवों के द्वारा व्याप्त वेदी तटों से सहित जो गोपुर था वह 'अपराजित' नाम वाला था ।।८।। उन गोपुरों की ऊँचाई पर सुशोभित तोरणों के दोनों ओर वर्तमान, तथा नेत्रों का १. ममरै म०।