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वर्धमानचरितम् प्रणिपत्य ततो भवामिधानो जिननाथस्य चिराय काशिकायाम् । स महातिमहादिरेष वीरः प्रमदादित्यभिधां व्यधत्त तस्य ॥१२६ परिहारविशुद्धिसंयमेन प्रकटं द्वादश वत्सरांस्तपस्यन् । स निनाय जगत्त्रयैकबन्धुभंगवान् ज्ञातिकुलामलाम्बरेन्दुः ॥१२७
उपजातिः
अथर्जुकूलोच्छ्रितकूलभाजं श्रीजृम्भकग्राममुपेत्य सम्यक् । षष्ठोपवासेन युतोऽपराढ़े सालस्य मूलाश्मनि सन्निविश्य ॥१२८ वैशाखमासस्य विशुद्धपक्षे तिथौ दशम्यामुडुपेऽयंमस्थे। स घातिकर्माणि जिनः प्रहत्य ध्यानासिना केवलमाप बोवम् ॥१२९
हरिणी
अथ दशविधैरच्छायाद्यैर्गुणैः सहितं तदा
त्रिदशपतयो भक्त्या नेमुः समेत्य जिनेश्वरम् । विगतकरणं निया॑यन्तं यथास्थिति सर्वदा
युगपदखिलं लोकालोकं स्वकेवलसम्पदा ॥१३०
भव नामक रुद्र ने अपनी नाना विद्याओं के विभव से उन पर उपसर्ग किये परन्तु वह संसार से रहित उन भगवान् को जीतने के लिये समर्थ नहीं हो सका ॥ १२५ ॥ तदनन्तर उस भव नामक रुद्र ने चिरकाल तक उन जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर यह 'महातिवीर हैं', 'महावीर हैं' इस तरह हर्ष से काशी नगरी में उनके नाम रक्खे ॥ १२६ ॥ तीनों जगत् के अद्वितीय बन्धु तथा ज्ञातिवंश रूपी निर्मल आकाश के चन्द्रमा स्वरूप उन भगवान् ने परिहारविशुद्धि संयम के साथ प्रकट तपस्या करते हुए बारह वर्ष व्यतीत किये ॥ १२७ ।।
तदनन्तर ऋकला नदी के उन्नत तट पर स्थित श्री जम्भक ग्राम को प्राप्तकर वे अच्छी तरह वेला के नियम से युक्त हो अपराह्नकाल में साल वृक्ष के नीचे शिलापर विराजमान हुए। वहाँ वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि में जब कि चन्द्रमा उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र पर स्थित था, ध्यानरूपी खड्ग के द्वारा घातिया कर्मों को नष्ट कर जिनेन्द्र भगवान् ने केवलज्ञान प्राप्त किया ।। १२८–१२९ ।। तदनन्तर उस समय जो अच्छाया-छाया नहीं पड़ना आदि दश प्रकार के अतिशयों से सहित थे तथा इन्द्रियों के बिना अपनी केवल ज्ञान रूप सम्पदा के द्वारा जो समस्त लोकालोक को एक साथ सदा सम्यक प्रकार से जानते थे ऐसे उन वीर जिनेश्वर के पास आकर इन्द्रों ने उन्हें भक्ति पूर्वक नमस्कार किया ॥ १३० ॥