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वर्द्धमानचतितम्
स सुरेभंगवान्कृतोरुपूजो विधिना पृष्टसमस्तबन्धुवर्गः । अभिवाह्यवनं ययौ मुमुक्षुश्चरणाभ्यां भवनात्पदानि सप्त ॥१११ वररत्नमयीं विधुप्रभाख्यां ध्रियमाणां नभसि स्वयं सुरेन्द्रः । शिबिकामधिरुह्य वीरनाथो निरगाद्भव्यजनैः पुरात्परीतः ॥११२ भगवान्वनमेत्य नागखण्डं त्रिदशेन्द्ररवतारितः स यानात् । अभिदृश्य इव स्वकीयपुण्ये स्फटिकाश्मन्यतिनिर्मले न्यसीदत् ॥११३ हृतकर्ममलानुदङ्मुखेन प्रणिपत्यैकधियाथ तेन सिद्धान् । ज्वलदाभरणोत्करः कराभ्यां प्रगटो राग इव स्वतो निरासे ॥११४ भुवि मार्गशिरस्य कृष्णपक्षे स दशम्यां प्रथितः श्रियाऽपराह। परमार्यमणि स्थिते शशाङ्क कृतषष्ठो भगवांस्तपः प्रपेदे ॥११५ निबिडीकृतपञ्चमुष्टिलुप्तानलिनीलामणिभाजने निधाय । स्वयमेव शिरोरुहांस्तदीयान्निदधौ क्षीरपयोनिधौ महेन्द्रः ॥११६ अभिवन्द्य तपःश्रिया समेतं विबुधास्ते प्रतिजग्मुरात्मघाम ।
जनताभिरयं स इत्युदक्षं क्षणमात्र नभसीक्षिता विचिन्त्य ॥११७ देवो ने जिनकी बहुत बड़ी पूजा की है तथा जिन्होंने विधि पूर्वक अपने समस्त बन्धु वर्ग से पूछ लिया है ऐसे मुमुक्षु भगवान्, भवन से सात डग पैदल ही बाह्य वन को ओर चले ॥१११ ॥ तदनन्तर स्वयं इन्द्र जिसे आकाश में धारण कर रहे थे ऐसी उत्कृष्ट रत्नमयो चन्द्रप्रभा नाम को पालको पर सवार होकर भव्यजीवों से घिरे हुए भगवान् वीर नाथ नगर से बाहर निकले । ॥ ११२ ।। नागखण्ड वन में पहुंचने पर इन्द्रों ने जिन्हें पालको से उतारा था ऐसे वे भगवान् अपने पुण्य के समान दर्शनीय स्फटिक की अत्यन्त निर्मल शिला पर बैठ गये ॥ ११३ ॥
तदनन्तर उन्हों ने उत्तराभिमुख स्थित हो कर्मरूप मल को नष्ट करने वाले सिद्धभगवन्तों को एकाग्रचित्त से नमस्कार किया तथा देदीप्यमान आभूषणों के समूह को दोनों हाथों के द्वारा अपने शरीर से इस प्रकार पृथक् कर दिया मानो प्रकट राग को ही पृथक् किया हो ॥ ११४ ॥ पथिवी पर लक्ष्मी से प्रसिद्ध भगवान् ने मार्गशीर्ष मास के कृष्णपक्ष की दशमी के दिन अपराह्न काल में जब कि चन्द्रमा अर्यमा*-उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र पर स्थित था वेला का नियम लेकर तप ग्रहण कर लिया-दैगम्बरी दीक्षा धारण कर ली ॥ ११५ ।। सुदढ़ पञ्चमुष्टियों के द्वारा लोचे हए, भ्रमर के समान काले उनके केशों को मणिमय पिटारी में रखकर सौधर्मेन्द्र स्वयं ही क्षोर सागर में क्षेप आया ।। ११६ ॥ वे देव तपोलक्ष्मी से युक्त भगवान् को नमस्कार कर अपने-अपने स्थान पर चले गये । जब वे देव आकाश में जा रहे थे तब जनता उन्हें ऊपर की ओर नेत्र उठा कर क्षण भर के लिये ऐसा विचारतो हुई देख रही थी कि यह वह है यह वह है अर्थात् यह सौध र्मेन्द्र है, यह ऐशानेन्द्र है आदि ।। ११७ ॥ १. क्षीरपयोदधौ ब० । २. नभसीक्षितो म० । * ज्योतिष में उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र का स्वामी अर्यमा बताया
है। यहाँ स्वामी से उसके नक्षत्र का ग्रहण करना चाहिये । त्रैलोक्य प्रज्ञप्ति में भी भगवान् जन्म नक्षत्र उत्तरा फाल्गुनी लिखा है । उत्तर पुराण में हस्त और उत्तरा का मध्य भाग बतलाया है।