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वर्धमानचरितम् चरणौ विनिवेश्य लीलयासौ भगवान्मूर्धनि तस्य भोगिभर्तुः । तरुतोऽवततार वीतशङ्को भुवि वीरस्य हि नास्ति भीतिहेतुः ॥९७ अभयात्मतया प्रहृष्टचेता विबुधस्तस्य निजं प्रकाश्य रूपम् । अभिषिच्य सुवर्णकुम्भतोयैः स महावीर इति व्यधत्त नाम ॥९८ अथ लडितशैशवः क्रमेण प्रतिपेदे नवयौवनं श्रिया सः। भगवानिजचापलं विहन्तुं स्वयमभ्युद्यत एव वर्द्धमानः ॥९९ सहजैर्दशभिर्गुणैरुपेतं वपुरस्वेदपुरःसरैस्तदीयम्। अभवद्भवि सप्तहस्तमात्रं रुचिकीर्णं नवकर्णिकारवर्णम् ॥१०० भगवानमरोपपनीतभोगान्स निनायानुभवन्भवस्य हन्ता। त्रिगुणान्दशवत्सरानवाब्जसुकुमाराङ्घ्रियुगः कुमार एव ॥१०१ अथ सन्मतिरेकदानिमित्तं विषयेभ्यो भगवानभूद्विरक्तः। प्रशमाय सदा न बाह्यहेतुं विदितार्थस्थितिरीक्षते मुमुक्षुः ॥१०२ विमलावधिना निवृत्य' नाथः क्रमतोऽनीतभवानचिन्तयत्स्वान् । प्रकटीकृतवृत्तमुद्धतानामवितृप्ति विषयेषु चेन्द्रियाणाम् ॥१०३
परन्तु वर्द्धमान जिनेन्द्र उस नागराज के मस्तक पर दोनों पैर रखकर निर्भय हो लीला पूर्वक वृक्ष
से नीचे उतरे सो ठीक ही है क्योंकि पृथिवी पर वीर मनुष्य के लिये भय का कारण नहीं रहता है . ॥९७ ॥ उनकी निर्भयता से प्रसन्न चित्त देव ने अपना रूप प्रकट किया तथा सुवर्ण कलश के जल से अभिषेक कर उनका महावीर यह नाम रक्खा ॥ ९८॥
तदनन्तर जिनका शैशव काल व्यतीत हो गया था ऐसे उन वर्द्धमान भगवान् ने क्रम-क्रम शोभा युक्त नवयौवन प्राप्त किया । उस समय वे ऐसे जान पड़ते थे मानों अपनी चपलता को नष्ट करने के लिये स्वयं ही उद्यत हुए हो ॥ ९९ ।। पृथिवी पर उनका शरीर अस्वेद आदि जन्म जान दश अतिशयों से सहित था, सात हाथ ऊँचा था, कान्ति से व्याप्त था तथा नूतन कनेर के फूल के समान वर्ण वाला था ॥ १००। जो देवों के द्वारा लाये ए भोगों का अनभव करते थे. जो संसार का नाश करने वाले थे तथा जिनके चरण युगल नवीन कमल के समान सुकुमार थे ऐसे भगवान् ने कुमार अवस्था में ही तीस वर्ष व्यतीत कर दिये ॥ १०१॥
तत्पश्चात् एक समय भगवान् सन्मति किसी बाह्य कारण के बिना ही विषयों से विरक्त हो गये सो ठीक ही है क्योंकि पदार्थों की स्थिति को जानने वाला मुमुक्षु-मोभाभिलाषी प्राणी शान्ति प्राप्त करने के लिये सदा बाह्य कारण को नहीं देखता है ॥१०२॥ भगवान् ने निर्मल अवधिज्ञान के द्वारा एक साथ अपने अतीतभवों तथा उद्दण्ड इन्द्रियों की विषयों में होने वाली अतृप्ति का इस प्रकार चिन्तवन किया कि जिससे उन्हें पूर्वभवों का सब वृत्तान्त प्रकट हो गया अथवा वृत्त-चारित्र ग्रहण करने का भाव प्रकट हो गया ॥ १०३ ॥
१. विवृत्य ब०।