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वर्धमानचरितम् एकादशः सर्गः
पुष्पिताना अथ नरकभवे विचित्रदुःखं चिरमनुभूय विनिर्गतः कथंचित् । पुनरिह भरते रथाङ्गपाणिः प्रविपुल सिंहगिरौ बभव सिंहः ॥१ शमविरहितमानसो निसर्गात्प्रथमकषायकषायरज्जनेन । यम इव कुपितो विना निमित्तं समदगजानवधीत्क्षुधा विहीनः ॥२ प्रतिरवपरिपूरिताद्रिरन्ध्र करिकलभा ध्वनितं निशम्य तस्य । विदलितहृदयाः प्रियैरकाण्डे समभसुभिःसुनिरासिरे स्वयूथैः ॥३ मृगकुलमपहाय तं नगेन्द्रं सकलमगादपरं वनं विबाधम्। करिरिपुनखकोटिलुप्तशेषं व्रजति सदा निरुपद्रवं हि सर्वः ॥४ अविरतदुरिताशयानुबन्धाद्विगतदयो निजजीवितव्यपाये। पुनरपि नरकं जगाम सिंहो प्रथममसत्फलमेतदेव जन्तोः ॥५ नरकगतिमुपागतो हरियः स हि मृगनाथ भवानिति प्रतीहि । अथ नरकभवे यदुग्रदुःखं शृणु तनुमान्समुपैति तत्प्रवक्ष्ये ॥६
ग्यारहवाँ सर्ग इसके अनन्तर चक्रवर्ती का जीव नरक के पर्याय में चिरकाल तक नाना प्रकार का दुःख भोग कर किसी तरह वहाँ से निकला और निकल कर फिर से इसी भरत-क्षेत्र के बहुत बड़े सिंहगिरि नामक पर्वत पर सिंह हुआ ॥१॥ उसका मन स्वभाव से ही अशान्त रहता था। अनन्तानुबन्धी कषाय रूपी रङ्ग से रंगा हुआ होने के कारण वह निमित्त के बिना ही यमराज के समान कुपित रहता था और भूख से रहित होने पर मदमाते हाथियों का वध करता था ॥ २॥ प्रतिध्वनि से पर्वत की गुफाओं को पूर्ण करनेवाली उसकी गर्जना को सुनकर जिनके हृदय विदीर्ण हो गये थे ऐसे हाथियों के बच्चे असमय में ही प्रिय प्राणों के साथ अपने झुण्डों से पृथक् किये जाते थे। भावार्थ-उसकी गर्जना सुन हाथियों के कितने ही बच्चे भय से मर जाते थे और कितने ही अपने झुण्ड से विछुड़ कर यहाँ-वहाँ भाग जाते थे ॥ ३॥ उस सिंह के नखों के अग्रभाग से लुप्त होने से शेष रहा मृगों का समस्त समूह उस पर्वत को छोड़कर अन्य निर्वाध वन में चला गया सो ठीक ही है क्योंकि सब लोग उपद्रवरहित स्थान पर जाते हैं ।। ४ ।। वह दयाहीन सिंह निरन्तर पापपूर्ण अभिप्राय के संस्कार से अपना जीवन समाप्त होने पर फिर से प्रथम नरक गया सो ठीक ही है क्योंकि जीव के असत्कर्म का फल यही है ॥ ५॥ मुनिराज ने सिंह से कहा-हे मृगराज ! जो सिंह नरक गति को प्राप्त हुआ था वह आप ही हैं ऐसा निश्चय करो। यह जीव नरक पर्याय में जिस तीव्र दुःख को प्राप्त होता है उसे अब सुनो मैं कहता हूँ॥ ६ ॥
१. सुमहति म० । २. मसुभिश्च निरासिरे म० ।