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वर्धमानचरितम्
स्रग्धरा
चूडारत्नांशुजालैः किसलयितक रैर्वन्द्यमानः सुरेन्द्रः
स्वज्ञानान्तनिमग्न त्रिजगदनुपमस्तीर्णसंसार सिन्धुः । उत्कर्षेणायुषोऽसौ विहरति भगवान्भव्यवृन्दैः परीतो
देशानां पूर्व कोटीं शशिविशदयशोराशिभिः श्वेतिताशः ॥ १५९ उपजातिः
अन्तर्मुहूर्तस्थितिकं यदायुस्तत्तुल्यवेद्यान्वितनामगोत्रः । विहाय वाङ्मनसयोगमन्यं स्वकाययोगं खलु बादरं च ॥१६० आलम्ब्य सूक्ष्मीकृत काययोगमयोगतां ध्यानबलेन यास्यन् । सूक्ष्मक्रियादिप्रतिपातिनाम ध्यायत्यसौ ध्यानमनन्यकृत्यः ॥१६१ आयुःस्थितेरप्यपरं निकामं कर्मत्रयं यद्य 'धिक स्थिति स्यात् । तदा समुद्धातमुपैति योगी तत्तुल्यतां तस्त्रितयं च नेतुम् ॥ १६२ वसन्ततिलकम्
दण्डं कपाटमनघं प्रतरं च कृत्वा स्वं लोकपूरणमसौ समयैश्चतुभिः । तावद्भरेव समयैरूपसंहृतात्मा ध्यानं तृतीयमथ पूर्ववद २भ्युपैति ॥ १६३
है ।। १५८ ॥ चूड़ामणि की किरणों के समूह से पल्लवाकार हाथों को धारण करने वाले सुरेन्द्र जिन्हें वन्दना करते हैं, जिनके आत्मज्ञान के भीतर तीनों लोक निमग्न हैं, जो उपमा से रहित हैं, जिन्होंने संसाररूपी समुद्र को पार कर लिया है, जो भव्य जीवों के समूह से घिरे हुए हैं तथा जिन्होंने चन्द्रमा के समान निर्मल यश के समूह से समस्त दिशाओं को श्वेत कर दिया है ऐसे वे भगवान्, उत्कृष्ट रूप से देशोन - आठ वर्ष और अन्तर्मुहूर्त कम एक करोड़ वर्ष पूर्व तक विहार करते रहते हैं ।। १५९ || जब उनकी आयु अन्तर्मुहूर्त की रह जाती है तथा वेदनीय नाम और गोत्र कर्म की स्थिति भी उसी के समान अन्तर्मुहूर्त की शेष रहती है तब वे वचनयोग मनोयोग और स्थूल काययोग को छोड़ कर सूक्ष्म काययोग का आलम्बन लेते हैं और ध्यान के बल से आगे अयोग अवस्था की प्राप्त करने वाले होते हैं । उसी समय अनन्य कृत्य होकर वे केवली भगवान् सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाति नामक तीसरे शुक्ल ध्यान को ध्याते हैं ।। १६० - १६१ ॥ यदि शेष तीन कर्म, आयु कर्म की स्थिति से अधिक स्थिति वाले हों तो सयोगकेवली भगवान् उन तीन कर्मों को आयुकर्म की समानता प्राप्त कराने के लिये समुद्धात को प्राप्त होते हैं ।। १६२ ॥ वे केवली भगवान्, चार समय में अपने आत्मा को निर्दोष दण्डकपाटप्रतर और लोकपूरण रूप करके तथा उतने ही समय में संकोचित कर पहले के समान तृतीय शुक्ल ध्यान को प्राप्त होते हैं । भावार्थ - मूल शरीर को न छोड़ कर आत्मप्रदेशों के बाहर फैलने को समुद्धात कहते हैं । इसके वेदना, मारणान्तिक, कषाय, तेजस,
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१. यद्यधिकं स्थितं म० । २. पूर्वविदभ्युपैति म० ।