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वर्धमानचरितम् पूगद्रुमैः स्वगतनागलतादलाभा'श्यामीकृताम्बरतलैंनिगमाः परीताः। भास्वन्महामरकतोपलकल्पितोच्चशालावलीवलयिता इव यत्र भान्ति ॥४ तृष्णां सदाश्रितजनस्य विनाशयद्धिरन्तःप्रसत्तिसहितैरनपेतपद्मः। 'तोयाशयैरमलिनद्विजसेवनीयैः सद्धिश्च भाति भुवि यः समतीतसंख्यैः ॥५ यस्मिन्सदास्ति मुरजेषु कराभिघातो बन्धस्थितिवरहयेषु च शब्दशास्त्रे । द्वन्द्वोपसर्गगुणलोपविकारदोषो बिम्बाधरे मृगशामपि विद्रुमश्रीः॥६ तत्रास्त्यथो निखिलवस्त्ववगाहयुक्तं भास्वत्कलाधरबुधैः सवृषं सतारम् । अध्यासितं वियदिव स्वसमानशोभं ख्यातं पुरं जगति कुण्डपुराभिधानम् ॥७
मद्यपायी लोगों का निरर्थक वार्तालाप नहीं देखा जाता है। पङ्क-कीचड़ की स्थिति कमल और धान्य में ही देखी जाती है वहाँ के मनुष्यों में पङ्क-पाप की स्थिति नहीं देखी जाती है तथा विचित्र भाव-नाना वर्णों का सद्भाव सदा मयूरों के समूह में ही देखा जाता है वहाँ के मनुष्यों में विचित्र भाव-असमानता का भाव नहीं देखा जाता है ।। ३ ।। अपने आप में लिपटी हुई पान की लताओं के पत्तों की आभा से जिन्होंने आकाशतल को काला-काला कर दिया है ऐसे सुपारी के वृक्षों से घिरे हुए जहाँ के गाँव देदीप्यमान बड़े-बड़े मरकत मणियों से, निर्मित ऊंचे कोट की पंक्तियों से वेष्टित के समान सुशोभित होते हैं ।। ४ ।। जो देश, आश्रित मनुष्यों को तृष्णा-प्यास ( पक्ष में धनस्पृहा ) नष्ट करने वाले, अन्तःप्रसत्ति-भीतर की स्वच्छता ( पक्ष में हृदय की प्रसन्नता ) से सहित, अनपेतपद्म-कमलों से सहित ( पक्ष में पद्मालक्ष्मी से सहित ) और अमलिन द्विज-श्वेत हंस पक्षियों से (पक्ष में निर्दोष ब्राह्मणों से) सेवनीय असंख्य जलाशयों और सत्पुरुषों से पृथिवी पर अत्यधिक सुशोभित होता है ।। ५ ॥ जिस देश में सदा कराभिघात–हाथ का प्रहार यदि था तो मदड़ो में ही था वहाँ के मनुष्यों में कराभिघात-टैक्स की पीड़ा नहीं थी। बन्धस्थिति-बन्धन का सद्भाव यदि था तो उत्कृष्ट घोड़ो में ही था वहाँ के मनुष्यों में बन्ध स्थिति-कारावास आदि बन्ध स्थिति नहीं थी । द्वन्द्व-द्वन्द्व समास, उपसर्ग-प्र परा आदि उपसर्ग, गुण, अ ए ओ रूप गुण, लोप-वर्ण का अदर्शन, तथा विकार-एक शब्द के स्थान में दूसरे शब्द के आदेश होने रूप विकार इन दोषों का सद्भाव यदि था तो शब्द शास्त्र व्याकरण में ही था वहाँ के मनुष्यों में द्वन्द्वोपसर्ग-सर्दी गर्मी आदि के उपद्रव, गुण लोप-दया दाक्षिण्य आदि गुणों का विनाश और विकार दोषअन्धापन बहिरापन आदि दोषों का सद्भाव नहीं था। इस प्रकार विद्रुम श्री-मूंगा के समान शोभा यदि थी तो मृगनयनी स्त्रियों के विम्बोष्ठ में ही थी वहाँ की भूमि पर विद्रुम श्री-वृक्षों की शोभा का अभाव नहीं था अर्थात् सब जगह हरे भरे वृक्ष लगे थे॥ ६॥
तदनन्तर उस विदेह देश में कुण्डपुर नाम का एक जगत्प्रसिद्ध नगर था जो स्वसदश शोभा से सम्पन्न होता हुआ आकाश के समान सुशोभित हो रहा था, क्योंकि जिस प्रकार आकाश समत्त वस्तुओं के अवगाह से युक्त है उसी प्रकार वह नगर भी समस्त वस्तुओं के अवगाह से युक्त था १. दलाभ म० । २. “तारो मुक्तादिसंशुद्धौ तरुणे शुद्धमौक्तिके । तारं तु रजते तारा सुग्रीवगुरुयोषितोः"
इति विश्वलोचनः ।