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वर्धमानचरितम् पुष्पोत्तरात्समवतीर्य सुराधिपोऽथ स्वप्ने विवेश धवलद्विपरूपधारी। देव्या मुखं निशि शुचौ सितपक्षषष्ठयां चन्द्रे प्रवृद्धिमति चोत्तरफाल्गुननिस्थे॥४८ तस्मिन्क्षणे स्वहरिविष्टरकम्पनेन ज्ञात्वा सुराधिपतयोऽथ चतुर्विकल्पाः।। तामेत्य दिव्यमणिभूषणगन्धमाल्यवस्त्रादिभिः समभिपूज्य ययुः स्वधाम ॥४९ श्रीझैधृतिश्च लवणा च बला च कोतिर्लक्ष्मीश्च वाक्च विकसत्प्रमदेन देव्यः । एता निजद्युतिविदीपितवायुमार्गास्तामाज्ञया सुरपतेः सहसोपतस्थुः ॥५० ।। लक्ष्मीर्मुखे हृदि धृतिर्लवणा च धाम्नि कोतिर्गुणेषु च बले च बला महत्त्वे । श्रीर्वाचि वाक् च नयनद्वितये च लज्जा तस्या मुदा सह यथोचितमध्युवाच ॥५१ 'गर्भस्थितोऽपि स जहे जगदेकचक्षुर्ज्ञानत्रयेण विमलेन न जातु मातुः । धाम्ना न भानुरुदयाद्रितटीविशालकुक्षिस्थितोऽपि रुचिरेण परीयते किम् ॥५२
से जिनेन्द्र भगवान् के जन्म को सूचित करने वाला स्वप्नावली का फल सुनकर वह प्रियकारिणी बहुत ही प्रसन्न हुई और राजा सिद्धार्थ ने भी अपना जन्म सफल माना सो ठीक ही है क्योंकि त्रिलोकीनाथ का पिता होना किनके हर्ष के लिये नहीं होता ? अर्थात् सभी के हर्ष के लिये होता है ॥ ४७॥ ___ . तदनन्तर आषाढ़ शुक्ल षष्ठी के दिन, जब कि वृद्धि से युक्त चन्द्रमा उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र पर स्थित था, उस इन्द्र ने पुष्पोत्तर विमान में अवतीर्ण होकर तथा रात्रि के समय स्वप्न में श्वेत हाथी का रूप धर रानी प्रियकारिणी के मुख में प्रवेश किया। भावार्थ-आषाढ़ क्षुक्ला षष्ठी के दिन रानी प्रियकारिणी ने रात्रि के समय ऐसा स्वप्न देखा कि एक सफ़ेद हाथी हमारे मुख में प्रवेश कर रहा है। उसी समय प्रियमित्र चक्रवर्ती के जीव इन्द्र ने पुष्पोत्तर विमान से चय कर उसके गर्भ में प्रवेश किया ॥ ४८ ॥ उसी समय अपना सिंहासन कम्पित होने से जिनेन्द्र भगवान् के गर्भा वतरण को जानकर चारों निकाय के इन्द्र प्रियकारिणी के पास आये और दिव्य मणियों के आभूषण, गन्ध, माला तथा वस्त्र आदि के द्वारा उसकी पूजा कर अपने स्थान पर चले गये ।। ४९ ॥ श्री. ही,धति, लवणा, बला, कीति, लक्ष्मी और सरस्वती ये देवियाँ इन्द्र की आज्ञा से अपनी कान्ति के द्वारा आकाश को प्रकाशित करती हुई शीघ्र ही रानी प्रियकारिणी के समीप आकर उपस्थित हो गईं ॥ ५० ॥ उसके मुख में लक्ष्मी, हृदय में धृति, धाम में लवणा, गुणों में कीति, बल में बला, महत्त्व में श्री, वचन में सरस्वती, और नेत्र युगल में लज्जा हर्ष के साथ यथायोग्य निवास करने लगी॥५१॥
____ जगत् के अद्वितीय नेत्र स्वरूप वह बालक माता के गर्भ में स्थित होने पर भी निर्मल ज्ञान त्रितय-मति श्रुत अवधिज्ञान के द्वारा कभी नहीं छोड़ा गया था सो ठीक ही है क्योंकि उदयाचल की तटी रूपी विशाल कुक्षि में स्थित रहता हुआ भी सूर्य क्या मनोहर तेज से व्याप्त नहीं रहता? अर्थात् अवश्य रहता है। भावार्थ-वह बालक गर्भ में भी मति श्रुत १. गर्भ० वसन्नपि मलैरकलङ्कितत्त्ङ्गो ज्ञानत्रयं त्रिभुवनकगुरुर्बभार।
तुंगोदयाद्रिगहनान्तरितोऽपि धाम कि नाम मुञ्चति कदाचन तिग्मरश्मिः ॥९॥ धर्मशर्मा० सर्गहु ६ ।