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सप्तदशः सर्गः
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दामद्वयं भ्रमवलिप्रकरं नभःस्थं विध्वंसितान्धतमसं सकलं मृगाङ्कम् । बालं रवि सरसिजानि विबोधयन्तं क्रीडन्मदेन विमलाम्भसि मत्स्ययुग्मम् ॥३९ कुम्भौ सरोरुहवृतौ फलसंवृतास्यौ रम्यं सरः सरसिजैः स्फटिकाच्छवारि। वारां निधि पिहितदिग्वलयं तरङ्गैः सिंहासनं मणिमयूखविभूषिताङ्गम् ॥४० चञ्चद्ध्वजं सुरविमानमननमानं नागालयं समदनागवधूनिवासम्। १विस्तारितांशनिवहं दिवि रत्नराशि वह्नि च धूमरहित कापला म् ॥४१ स्वप्नान्सदस्यवनिपाय जगाद देवी तानात्मजाननविलोकनकौतुकाय । सोऽपि प्रमोदभरविह्वलितान्तराक्षस्तस्यै क्रमादभिदधाविति तत्फलानि ॥४२ दृष्टेन ते त्रिभुवनाधिपतिर्गजेन पुत्रो भविष्यति वृषेण वृषस्य कर्ता। सिंहेन सिंह इव विक्रमवान्मृगाक्षि लक्ष्म्या सुरैः सुरगिरौ स मुदाभिषेच्यः ॥४३ दामद्वयेन भविता यशसो निधानं चन्द्रेण चन्द्रमुखि मोहतमोविभेदी। हंसेन भव्यकमलप्रतिबोधकारी सोऽनन्तमाप्स्यति सुखं शफरद्वयेन ॥४४ धास्थत्यलं घटयुगेन सलक्षणाङ्गं तृष्णां हनिष्यति सदा सरसा जनानाम् । अम्भोधिना सकलबोधमुपैष्यतीह सोऽन्ते पदं परमवाप्स्यति विष्टरेण ॥४५ देवालयादवतरिष्यति देवधाम्न स्तीथं करिष्यति फणीन्द्रगृहेण मुख्यम् । यास्यत्यनन्तगुणतां मणिसंचयेन कर्मक्षयं स वितनिष्यति पावकेन ॥४६ स्वप्नावलीफलमिति प्रियतो निशम्य सा पिप्रिये जिनपतेरवतारशंसि ।
मेने स्वजन्म सफलं वसुधाधिपोऽपि त्रैलोक्यनाथगुरुताथ मुदे न केषाम् ॥४७ ऐसी रत्नराशि को, तथा जिसने दिशाओं को पीत वर्ण कर दिया था ऐसी निर्धूम अग्नि को उसने देखा था ॥ ३८-४१॥
जिसे पुत्र का मुख देखने का कौतूहल उठ रहा था ऐसे राजा के लिये प्रियकारिणी देवी ने उन स्वप्नों को कहा और आनन्द के भार से जिसका अन्तःकरण विह्वल हो रहा था ऐसे राजा ने भी उसके लिये क्रम से इस प्रकार उन स्वप्नों का फल कहा ॥ ४२ ॥ हे मृगलोचने ! हाथी के देखने से तुम्हारे जो पुत्र होगा वह तीन लोक का स्वामी होगा, बैल के देखने वृष-धर्म का कर्ता होगा, सिंह के देखने से सिंह के समान पराक्रमी होगा, लक्ष्मी के देखने से वह सुमेरु पर्वत पर देवों के द्वारा अभिषेक करने योग्य होगा, दो मालाओं के देखने से यश का भाण्डार होगा, हे चन्द्रमुखि ! चन्द्रमा के देखने से वह मोहान्धकार को नष्ट करने वाला होगा, सूर्य के देखने से भव्य रूपी कमलों को विकसित करने वाला होगा, मीन युगल के देखनेसे वह अनन्त सुख को प्राप्त करेगा । घट युगल के देखने से वह लक्षणों से सहित शरीर को अच्छी तरह धारण करेगा, सरोवर के देखने से सदा मनुष्यों की तृष्णा को नष्ट करेगा, समुद्र के देखने से वह इस लोक में पूर्ण ज्ञान को प्राप्त होगा, सिंहासन के देखने से वह अन्त में परम पद को प्राप्त होगा, देव विमान के देखने से वह स्वर्ग से अवतोणं होगा, नागेन्द्र का भवन देखने से वह मुख्य ताथ को करेगा, रत्न राशि के देखने से अनन्त गुणों को प्राप्त होगा और अग्नि के देखने से कर्मों का क्षय करेगा ।। ४३-४६ ॥ इस प्रकार पति १. विस्तारितं सुनिवहंम० । २. देवधाम्ना म० ब० ।