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सप्तदशः सर्गः
२३३ एकोऽयमेव समभूदभिरामकोयोर्दोषस्तयोर्भुवि वधूवरयोरनूनः । कृत्वा पदं सुमनसामुपरि प्रकाशं यद्बिभ्यतुः प्रतिदिनं कुसुमायुधात्तौ ॥२८ धर्मार्थयोः सततमित्यविरोधिकामं साद्धं तया मृगदृशानुभवन्नरेन्द्रः। संरक्षणात्प्रमदयन्सकलां धरित्रों कालं निनाय स यशोधवलोकृताशः ॥२९ भक्त्या प्रणेमुरथ तं मनसा सुरेन्द्रं षण्मासशेषसुरजीवितमेत्य देवाः। तस्मादनन्तरभवे वितनिष्यमाणं तीर्थ भवोदधिसमुत्तरणैकतीर्थम् ॥३० इन्द्रस्तदा विकसितावधिचक्षुरष्टौ दिक्कन्यका विततकुण्डलशैलवासाः । यूयं जिनस्य जननों त्रिशलामुपाध्वं प्राग्भाविनीमिति यथोचितमादिदेश ॥३१ चूडामणिद्युतिविराजितपुष्पचूला चूलावती जगति मालिनिका च कान्ता।
पर्याप्तपुष्पविनतां वनमालिकेव दृश्या सदा तनुमतां नवमालिका च ॥३२ क्योंकि संसार में अनन्यतुल्य अनुकूल संयोग किनकी कान्ति को सुशोभित कहीं करता ? ॥२७॥ सुन्दर कीर्ति को धारण करने वाले उन दोनों दाम्पतियों में पृथिवी पर यही एक बड़ा दोष था कि वे स्पष्ट रूप से सुमनस-फूलों के ऊपर पैर रखकर काम से प्रतिदिन भयभीत रहते थे। भावार्थलोक में कामदेव कुसुमायुध के नाम से प्रसिद्ध है अर्थात् पुष्प उसके शस्त्र हैं। वे दोनों दम्पती सुमनस्-उन फूलों पर जो कि कामदेव के शस्त्र कहे जाते हैं पैर रखकर कामदेव से भयभीत रहते थे यह विरुद्ध बात है। जो जिससे भयभीत रहता है वह उसके शस्त्रों के समीप नहीं जाता परन्तु वे दम्पती काम से भयभीत रहकर भो उसके शस्त्र स्वरूप फूलों पर अपने पैर रखते थे। परिहार पक्ष में सुमनस् का अर्थ विद्वान् और पद का अर्थ स्थान है इसलिये श्लोक का ऐसा अर्थ होता है कि वे दम्पती विद्वानों के ऊपर अपना स्थान बनाये हुए थे और काम से-शोलभङ्ग से निरन्तर भयभीत रहते थे ॥ २८ ॥ जो संरक्षण से समस्त पृथिवी को हर्षित कर रहा था तथा अपने यश से जिसने दिशाओं को धवल कर दिया था ऐसा वह राजा उस मृगनयनी के साथ निरन्तर धर्म और अर्थ पुरुषार्थ से अविरोधी काम का उपभोग करता हआ समय को व्यतीत करता था॥ २९ ॥
___ तदनन्तर जो आगे आने वाले भव में संसार सागर से पार करने के लिये अद्वितीय तीर्थ स्वरूप तोर्थ-धर्म का विस्तार करेगा तथा जिसको देवायु छह माह की शेष रह गई थी ऐसे उस इन्द्र (प्रिय मित्र चक्रवर्ती के जीव ) के पास जाकर देव उसे हृदय से भक्ति पूर्वक नमस्कार करने लगे॥ ३०॥ जिसका अवधिज्ञान रूपी नेत्र खुला हुआ था ऐसे सौधर्मेन्द्र ने उस समय अत्यन्त विस्तृत कुण्डल गिरि पर निवास करने वालो आठ दिक्कन्यका देवियों को यह आज्ञा दी कि तुम लोग जिनेन्द्र भगवान् को होनहार माता त्रिशला की यथा योग्य सेवा करो ॥ ३१॥ जिसकी फूलों से गुंथी चोटो चूडामणि को कान्ति से सुशोभित थी ऐसी चूलावती, जो जगत् में अत्यन्त सुन्दर थी ऐसी मालिनिका, जो अत्यधिक फूलों से नम्रोभूत वनपङ्क्ति के समान प्राणियों के लिये सदा दर्शनीय थी ऐसी नवमालिका, स्थूल तथा उन्नत स्तन रूपी घट युगल के बहुत भारी भार से जिसके कृश शरीर को त्रिवली नष्ट हो रही थी ऐसी त्रिशिरा, जिसने कल्पवृक्ष के सुन्दर फूलों के सुन्दर कर्णाभरण बनाकर पहिने थे तथा फूलों के विकास के समान जो सुन्दर थी ऐसी पुष्पचूला, जो चित्र विचित्र बाजूबन्दों से युक्त थी ऐसी कनकचित्रा, जिसने अपने तेज से सुवर्ण को तिरस्कृत कर दिया था ऐसी कनकदेवी तथा जो अत्यन्त मनोहर थी ऐसी वारुणी ये आठ दिक्कन्यकाएं नम्रो