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सप्तदशः सर्गः
एकावलीत रलनीलकर रोहश्रेणीकरालितमनोज्ञभुजान्तरालाः । सद्यः प्रसन्न जिनभक्त्यपनीयमानचित्तस्थमोहतिमिरा इव केचिदासन् ॥ ६६ आयातवेगपवनेन विकृष्यमाणा' दूरान्तराज्जलधरा विबुधान्समन्तात् । यानस्थरत्नरचितामरचापलक्ष्मीमादित्सयेव नभसि द्रुतमन्वयुस्तान् ॥६७ देवैविचित्रमणिभूषणवेषयानैस्तैरापतद्भिरुपरुद्ध समस्तदिक्का । केनापि निर्मितमभित्ति सजीवचित्रं द्यौबिभ्रतीव समवैक्षि जनैः सचित्रम् ॥६८ ज्योतिःसुरा हरिरवानुगतात्मसैन्याश्चन्द्रान्द्रयः सपदि पञ्चविधास्तदेयुः । शङ्खस्वनेन भवनोदरवासिनस्ते भृत्यैः सहाशु मिलिताश्चमरादयश्च ॥६९ तद्वयन्तराधिपतयः पटहस्वनेन व्याहूत सेवकनिरुद्ध दिगन्तरालाः । प्रापुः पुरं स्वसमधिष्ठितवाहवेगव्यालोलकुण्डलमणिद्युतिलिप्तगण्डाः ॥७० आसाद्य राजकुलमाकुलमुत्सवेन प्रत्युत्थितेन विदिता वसुधाधिपेन । मातुः पुरः स्थितमनन्यसमं जिनेन्द्रमिन्द्रास्तदा ददृशुरानतमौलयस्तम् ॥७१ मायार्भकं प्रथमकल्पपतिविधाय मातुः पुरोऽथ जननाभिषवक्रियायै । बालं जहार जिनमात्मरुचा स्फुरन्तं कार्यान्तरान्ननु बुधोऽपि करोत्यकार्यम् ॥७२
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से ही धारण कर रहे हों ।। ६५ ।। एकावली - एक लड़ के हार के मध्य में स्थित नील मणि की किरण रूप अङ्कुरों की सन्तति से जिनके सुन्दर वक्षःस्थल व्याप्त हो रहे थे ऐसे कोई देव ऐसे जान पड़ते थे मानों उनके हृदय में स्थित मोहरूपी अन्धकार निर्मल जिनभक्ति के द्वारा तत्काल दूर किया जा रहा ।। ६६ || गमनसम्बन्धी वेग से उत्पन्न वायु के द्वारा बड़ी दूर से खींचे हुए मेघ, आकाश में सब ओर शीघ्र ही उन देवों के पीछे-पीछे जा रहे थे जिससे वे ऐसे जान पड़ते थे मानों विमानों में स्थित रत्नों से निर्मित इन्द्रधनुष की शोभा को ही वे ग्रहण करना चाहते थे || ६७ ॥ नाना प्रकार के मणिमय आभूषण, वेष और वाहनों से सहित आते हुए उन देवों से जिसकी समस्त दिशाएं रुक गई थीं ऐसा आकाश उस समय लोगों के द्वारा आश्चर्य के साथ ऐसा देखा गया था मानों वह विना दीवाल के किसी रचित सजीव चित्र को ही धारण कर रहा हो ॥ ६८ ॥ सिंहनाद से जिनकी अपनी सेनाएँ पीछे-पीछे चल रही थीं ऐसे चन्द्र आदि पाँच प्रकार के ज्योतिषी देव उस समय शीघ्र ही वहां आ गये थे और भवनों के मध्य में निवास करने वाले जो चमर आदि भवनवासी देव थे वे शङ्खों का शब्द सुनकर अपने सेवकों के साथ शीघ्र मिले थे ।। ६९ ।। भेरी के शब्द से बुलाये हुए सेवकों के द्वारा जिन्होंने दिशाओं के व्याप्त कर रखा है तथा अपने द्वारा आरूढ़ वाहनों के वेग से चञ्चल कुण्डलों के मणियों की कान्ति से जिनके कपोल लिप्त हो रहे है ऐसे व्यन्तरों के इन्द्र उस नगर में आ पहुँचे ॥ ७० ॥ उठकर खड़े हुए राजा सिद्धार्थ ने जिनका समाचार जाना था तथा जिनके मुकुट नम्रीभूत थे ऐसे उन इन्द्रों ने उस समय उत्सव से परिपूर्ण राजभवन में आकर माता के सामने स्थित अनन्यतुल्य जिनेन्द्र बालक के दर्शन किये ।। ७९ ।। तदनन्तर सौधर्मेन्द्र ने माता के आगे माया निर्मित बालक रखकर जन्माभिषेक की क्रिया के लिये अपनी कान्ति से देदीप्यमान जिन बालक को उठा लिया १. विकृष्यमाणां म० ।
ही वहां आ अन्तराल को