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सप्तदशः सर्गः
तस्यां सुरा रजनिनाथकलाकृतौ तं सिंहासने महति पञ्चधनुः शतार्द्धम् । व्यासोच्छ्रिती दधति तद्विगुणार्यांत च जन्माभिषेकमहिमां विनिवेश्य चक्रुः ॥ ८० क्षीरोदधेरतिमुदा तरसोपनीतैर्भास्वन्महामणिघटाष्टसहस्रतोयैः । माङ्गल्यशङ्खपटहस्वननादिताशं शक्रादयस्तममराः सममभ्यषिञ्चन् ॥८१ तस्मिंस्तदा क्षुवति कम्पित शैलराजे घोणा प्रविष्टस लिलात्पृथुकेऽप्यजस्त्रम् । 'इन्द्राजरतृणमिवैकपदे निपेतुर्वीर्यं निसर्गजमनन्तमहो जिनानाम् ॥८२ कृत्वाथ वीर इति नाम नतः सुरेन्द्रस्तस्याग्रतः सुललितं सममप्सरोभिः । अक्ष्णोर्युगं सफलयन्नमरासुराणां साक्षात्प्रकाशित समस्तरसं ननर्त ॥८३
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के पाण्डुकवन में जाकर वहां एक ऐसी पाण्डुकम्बला नामकी शिला प्राप्त की जो पांच सौ योजन लम्बी थी, लम्बाई से आधी अढ़ाई सौ योजन चौड़ी थी, चार योजन ऊँची थी तथा शरद् ऋतु के चन्द्रमा के समान सफेद थी ।। ७९ ।। चन्द्रकला के समान आकार को धारण करने वाली उस पाण्डुकम्बला शिला पर जो पांच सौ योजन लम्बा तथा अढ़ाई सौ योजन चौड़ा और ऊँचा विशाल सिंहासन है उसपर जिनबालक को विराजमान कर देवों ने जन्माभिषेक की महिमा की ॥ ८० ॥ इन्द्रादिक देवों ने हर्ष पूर्वक क्षीर समुद्र से शीघ्र ही लाये हुए देदीप्यमान महामणिमय एक हजार आठ घटों में स्थित जल से उनका अभिषेक किया। अभिषेक के समय माङ्गलिक शङ्ख और भेरियों के शब्दों से दिशाएँ शब्दायमान हो रही थीं ।। ८१ ।। जिनेन्द्र भगवान् यद्यपि बालक थे तो भी नाक में प्रविष्ट हुए जल से जब उन्होंने निरन्तर छींक ली तब सुमेरु पर्वत काँप उठा। इस घटना से इन्द्र जीर्णतृण के समान एक साथ उनके चरणों में पड़ गये सो ठीक ही है क्योंकि तीर्थंकरों का अनन्त बल स्वभाव से ही उत्पन्न होता है || ८२॥ तदनन्तर
१. इन्द्रादयस्तृण म० । यहाँ ग्रन्थकर्ता ने पाण्डुकम्बला नामक शिला पर अभिषेक का वर्णन किया है परन्तु वह वर्णन अन्य ग्रन्थोंसे वांछित है । हरिवंश पुराण में लिखा है - दिशि चोत्तरपूर्वस्यां पाण्डुके पाण्डुका शिला । पाण्डुकम्बलया सार्धं रक्तया रक्तकम्बला || ३४७ || विदिक्षु सक्रमा हैमी राजती तापनीयिका । लोहिताक्षमयी चार्द्धं चन्द्राकाराश्च ताः शिलाः ।। ३४८ ॥ अष्टोच्छ्रायाः शतायामाः पञ्चाशद्विस्तृताश्च ताः । यत्रार्हन्तोऽभिषिच्यन्ते जम्बूद्वीप्समुद्भवाः ।। ३४९ ।। अर्थात् पाण्डुक वन की ऐशान आदि विदिशाओं में क्रम से पाण्डुक, पाण्डुकम्बला, रक्ता और रक्तकम्बला ये चार शिलायें हैं । ये शिलायें क्रम से सुवर्णमयी, रजतमयी, संतप्तस्वर्णमयी और लोहिताक्षमणि मयी हैं एव इनका आकार अर्धचन्द्र के समान है । ये शिलायें आठ योजन ऊँची, सौ योजन लम्बी और पचास योजन चौड़ी हैं। इन पर जम्बूद्वीप में उत्पन्न हुए तीर्थंकरों का अभिषेक होता है । सर्ग ५ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के उद्देश ४ गाथा १४८-१५० के आधार पर पाण्डुक शिला पर भरत क्षेत्र में उत्पन्न हुए तीर्थंकरों का, पाण्डुकम्बला शिला पर पश्चिम विदेह के तीर्थंकरों का, रक्तकम्बला पर ऐरावत के तीर्थंकरों का और रक्ता पर पूर्व विदेह के तीर्थंकरों का जन्माभिषेक होता है । इस प्रकरण में ग्रन्थकर्ता ने शिला का जो प्रमाण बताया है वह भी उक्त उल्लेख से बाधित है ।
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