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वर्धमानचरितम् वपुरादधद्विविधमाशु विजहदपि कर्मपाकतः । मेघ इव वियति वायुवशात् परिबम्भ्रमीति पुरुषो भवोदधौ ॥२ पुरुषेण दुर्लभमवेहि परममविनाशि दर्शनम् । येन सहितमचिराय यतस्तमुपैति मुक्तिरपि मुक्तिवर्मना ॥३ सफलं च जन्म खलु तस्य जगति स विदां पुरःसरः। गुप्तिपिहितदुरितागमनं भववीतये भवति यस्य चेष्टितम् ॥४ घनरूढमूलमपि नाम तरुमिव महामतङ्गजः। मोहमखिलमचिराय पुमान्स भनक्ति यः प्रशमसंपदा युतः ॥५ अवबोधवारि शमकारि मनसि शुचि यस्य विद्यते। क्रान्तजगदपि न तं दहति ह्रदमध्यमग्निरिव मन्मथानलः ॥६ अधिरूढसंयमगजस्य विमलशमहेतिशालिनः ।। क्षान्तिघनतरतनुत्रभृतो व्रतशीलमौलपरिरक्षितात्मनः ॥७ सुतपोरणे मुनिनृपस्य दुरितरिपुरुद्धतोऽपि सन् । स्थातुमपि न सहते पुरतो नहि दुर्जयोऽस्ति 'सुतपोऽवलम्बिनाम् ।।८
नाम का राजा हुआ ॥ १ ॥ जिस प्रकार वायु के वश से, मेघ आकाश में इधर-उधर परिभ्रमण करता है उसी प्रकार कर्मोदय से यह पुरुष जल्दी-जल्दी नाना प्रकार के शरीर को ग्रहण करता और छोड़ता हुआ संसार रूपी समुद्र में परिभ्रमण कर रहा है ॥२।। क्योंकि जिस सम्यग्दर्शन से सहित जीव को मुक्ति भी युक्ति के मार्ग से शीघ्र ही प्राप्त हो जाती है उस उत्कृष्ट अविनाशी सम्यग्दर्शन को तं पुरुष के लिये दूलंभ समझ । भावार्थ-मोक्ष प्राप्त कराने वाला अविनाशी तथा उत्कृष्ट सम्यग्दर्शन इस जीव को बडी कठिनाई से प्राप्त होता है॥३॥ निश्चय से संसार में उसी मनुष्य का जन्म सफल है तथा वही ज्ञानियों में अग्रसर है जिसको कि गुप्तियों के द्वारा पाप के आगमन को रोकने वाली चेष्टा संसार का नाश करने के लिये होती है ।। ४ ।। जिसकी जड़ बहुत गहरी जमी है उस वृक्ष को भी जैसे महान मदमाता हाथी नष्ट कर देता है उसी प्रकार जो मनुष्य प्रशमगुण रूपी संपदा से सहित है वह समस्त मोह को शीघ्र ही नष्ट कर देता है ॥ ५॥ जिस प्रकार सरोवर के मध्य में स्थित मनुष्य को अग्नि नहीं जलाती है उसी प्रकार जिसके मन में शान्ति को उत्पन्न करने वाला उज्ज्वल सम्यग्ज्ञान रूपी जल विद्यमान है उसे समस्त जगत् पर आक्रमण करने वाली भी कामाग्नि नहीं जलाती है। भावार्थ-यद्यपि काम रूपी अग्नि समस्त जगत् को संतप्त करने वाली है तो भी सम्यग्ज्ञानी जीव को वह संतप्त नहीं कर पाती ॥ ६ ॥ जो संयमरूपी हाथी पर सवार है, निर्मल शान्ति रूपी शस्त्र से सुशोभित है, क्षमा रूपी अत्यन्त सुदृढ़ कवच को धारण करता है, तथा व्रत-शील रूपी मौल वर्ग के द्वारा जिसको आत्मा सुरक्षित है उस मुनि रूपी राजा के आगे समीचीन तप रूपी रण में पाप रूपी शत्रु उद्दण्ड होने पर भी खड़ा रहने के लिये भी समर्थ नहीं है सो ठीक ही है क्योंकि सुतप का आलम्बन करने वाले मनुष्यों के लिये कोई भी दुर्जय नहीं होता है
१. सुनयावलम्बिनाम् म० ।