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षोडशः सर्गः सुवशीकृताक्षहृदयस्य शमनिहतमोहसम्पदः । दैन्यरहितचरितस्य सतः किमिहैव मुक्तिरपरा न विद्यते ॥९ १श्रुतमिद्धमप्यफलमेव विषयनिरतस्य चेष्टिते। शस्त्रमिव निशितमाजिमुखे भयविह्वलस्य समवेहि केवलम् ॥१० अमृतच्युता मुनिगिरा विबुधमहितया तमोनुदा। पद्म इव शिशिररश्मिरचा प्रतिबोध्यते भुवि न दूरभव्यकः ॥११ मुनिवाक्यमद्भतमचिन्त्यबहुविधगुणं सुदुर्लभम् । रत्नमिव भजति भव्यजनः श्रवणे निधाय भुवने कृतार्थताम् ॥१२ इति नन्दनाय समुदीर्य मुनिपतिरतीततद्भवान् । व्य तमवधिनयनो व्यरमत्पुरुषार्थतत्त्वमपि तत्त्ववेदिने ॥१३ स वमन्मुदाश्रु शुचि तस्य वचनभवधार्य नन्दनः । चन्द्रमणिरिव रराज गलज्जलबिन्दुरिन्दुकरजालसंगतः ॥१४
॥७-८ ॥ जिसने इन्द्रियों और मन को अच्छी तरह वश में कर लिया है, जिसने प्रशमगुण के द्वारा मोह की सम्पदा को नष्ट कर दिया है, तथा जिसका चरित दीनता से रहित है ऐसे सत्पुरुष के लिये क्या दूसरी मुक्ति इसी जगत् में विद्यमान नहीं है ? ॥९॥ जिस प्रकार रण के अग्रभाग में भय से विह्वल मनुष्य का तीक्ष्ण शस्त्र भी निष्फल होता है उसी प्रकार आचरण के विषय में विषयासक्त मनुष्य का देदीप्यमान श्रुतज्ञान भी मात्र निष्फल होता है ऐसा जानो । भावार्थ-जो मनुष्य शास्त्र का बहुत भारी ज्ञान प्राप्त करके भी तदनुसार चेष्टा करने में असमर्थ है उसका वह शास्त्र ज्ञान निष्फल ही है ॥ १० ॥ जिस प्रकार अमृतस्रावी, देवों के द्वारा सम्मानित तथा अन्धकार को नष्ट करने वाली चन्द्र किरण से कमल विकास को प्राप्त नहीं होता है उसी प्रकार अमृत के समान आनन्ददायी अथवा मोक्ष का उपदेश देने वाली, विद्वानों के द्वारा पूजित तथा अज्ञानान्धकार को नष्ट करने वाली मुनिवाणी से पृथिवी पर दूरभव्य जीव प्रतिबोध को प्राप्त नहीं होता ॥ ११ ॥ अद्भत, अचिन्तनीय नाना प्रकार के गुणों से सहित तथा अत्यन्त दुर्लभ मुनिवचन को रत्न के समॉन कानों में धारण कर-सुन कर भव्य जीव जगत् में कृतकृत्यता को प्राप्त होता है । भावार्थजिस प्रकार आश्चर्यकारक, नाना प्रकार के अचिन्तनीय गुणों से युक्त दुर्लभ रत्न को मनुष्य अपने कानों में पहिन कर संसार में कृतकृत्यता का अनुभव करता है उसी प्रकार मुनियों की दुर्लभ वाणी को सुनकर भव्य जीव संसार में कृतकृत्यता का अनुभव करता है-अपने जीवन को सफल मानता है ॥ १२ ॥ इस प्रकार अवधिज्ञान रूपी नेत्र से सहित मुनिराज, तत्त्वज्ञानी नन्दन के लिये उसके पूर्वभव तथा मोक्ष तत्त्व का भी स्पष्ट कथन कर चुप हो गये ।। १३ ।।
उन मुनिराज के वचनों का निश्चय कर हर्ष से उज्ज्वल आँसुओं को प्रकट करता हुआ नन्दन राजा, उस चन्द्रकान्त मणि के समान सुशोभित हो रहा था जो चन्द्रमा की किरणावली से
१. म प्रतौ दशमैकादशयोः श्लोकयोः क्रमभेदोऽस्ति ।।