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पञ्चदशः सर्गः
प्राप्यनन्त गुणैकशुद्धिसहितं योगं विशेषं क्रमाच्
छिन्दन्मोहतरुं समूलमचिराज्ज्ञानावृतेः सन्ततम् । रुन्धन्बन्धमपि स्थितेश्च जनयन् ह्रासक्षयौ निश्चलः
स्यादेकत्ववितर्कभागिति यतिः कर्माणि हन्तुं सहः ॥१५६
अर्थव्यञ्जनयोगसंक्रमणतः सद्योनिवृत्तश्रुतः
साधुः साधुकृतोपयोगसहितो ध्यानक्षमाकारभृत् । ध्यायन्क्षीणकषाय इत्यचलितस्वान्तः पुनर्ध्यानतो
निर्लेपो न निवर्तते मणिरिव स्वच्छाकृतिः स्फाटिकः ॥१५७
उपजातिः
निःशेषमेकत्व वितर्कशुक्लध्यानाग्निदग्धाखिलघातिदारुः । ज्ञानं परं तीर्थंकरः परो वा स केवली केवलमभ्युपैति ॥ १५८
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पापरहित है, जो क्रम से प्रवृत्त होने वाले मन से अर्थ व्यञ्जन और योगों का पृथक्त्व रूप से ध्यान करता है तथा उनके फलस्वरूप जो मोहनीय कर्म की समस्त प्रकृतियों का उपशम अथवा क्षय कर रहा है ऐसा मुनि पृथक्त्व वितर्क विचार नामक प्रथम शुक्ल ध्यान को सदा विस्तृत करता है। ।। १५४-१५५ ।। तदनन्तर अनन्तगुणी अद्वितीय शुद्धि से सहित योग विशेष को प्राप्त कर जो शीघ्र ही मोह कर्म रूपी वृक्ष को जड़सहित नष्ट कर रहा है, निरन्तर ज्ञानावरण के बन्ध को भी रोक रहा है तथा उसको स्थिति के ह्रास और श्नय को करता हुआ निश्चल रहता है ऐसा मुनि एकत्व वितर्क नामक द्वितीय शुक्ल ध्यान को प्राप्त होता है और वही कर्मों का क्षय करने के लिये समर्थ होता है ।। १५६ | अर्थ, व्यञ्जन और योगों के संक्रमण - परिवर्तन से जिसका श्रुत शीघ्र ही निवृत्त हो गया है, जो शुद्धोपयोग से सहित है, जो ध्यान के योग्य आकार को धारण कर रहा है, जिसकी कषाय क्षीण हो चुकी है, जिसका मन निश्चल है, जो मणि के समान निर्लेप है है तथा स्फटिक के समान स्वच्छ स्वभाव है ऐसा ध्यान करने वाला साधु अब ध्यान से निवृत्त नहीं होता है-पीछे नहीं हटता है । भावार्थ - पृथक्त्ववितर्क विचार नामक शुक्ल ध्यान आठवें से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक होता है तथा उपशम और क्षपक दोनों श्रेणियों में होता है । इस ध्यान को धारण करने वाला मुनि यदि उपशम श्रेणी में स्थित होता है तो वह नियम से पीछे हटता है - उस ध्यान से पतित हो जाता है परन्तु एकत्व वितर्क नाम का शुक्ल ध्यान बारहवें गुणस्थान में होता है अतः इस ध्यान को धारण करने वाला मुनि ध्यान से पीछे नहीं हटता है किन्तु अन्तर्मुहूर्त के भीतर शेष घातिया कर्मों का क्षय कर नियम से सर्वज्ञ बन जाता है ।। १५७ ।। एकत्व वितर्क शुक्ल ध्यानरूपी अग्नि के द्वारा जिसके घातिया कर्मरूपी लकड़ियों को सम्पूर्ण रूप से भस्म कर दिया है ऐसा तीर्थंकर हो अथवा अन्य केवली हो नियम से उत्कृष्ट केवलज्ञान को प्राप्त होता
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