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पञ्चदशः सर्गः
वंशस्थम्
वदन्ति देवस्य सरागसंयमं सुसंयमासंयममायुषो बुधाः ।
तपश्च बालं त्वनभीष्टनिर्जरां परं च सम्यक्त्वमुदारकारणम् ॥४४
मालभारिणी
निगदन्त्यथ योगवक्रभूयं प्रेविसंवादनमास्त्रवस्थ नाम्नः । अशुभस्य निमित्तमागमज्ञाः शुभनाम्नः खलु तद्विपर्ययश्च ॥४५ इन्द्रवज्रा
सम्यक्त्वशुद्धिविनयाधिकत्वं शीलव्रतेष्वव्यभिचारचर्या । ज्ञानोपयोगः सततं च शक्त्या त्यागस्तपस्था च परा निकामम् ॥४६ उपजातिः
संवेगता साधुसमाधिवैयावृत्तिक्रियाभ्युद्यतिरादरेण । जिनागमाचार्य बहुश्रुतेषु भक्तिश्च वात्सल्यमपि श्रुते च ॥४७ आवश्यकाहानिरुशन्ति मार्गप्रभावना च प्रकटा नितान्तम् । एतानि चात्यद्भुततीर्थं कृत्त्वनामात्रवस्येति निमित्तमार्याः ॥४८ आत्मप्रशंसा च परातिनिन्दा सतां गुणाच्छादनमीरयन्ति । असद्गुणोद्भावनया च नीचैर्गोत्रात्रवस्यैव समं निमित्तम् ॥४९
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और थोड़ा परिग्रह का होना मनुष्यायु का कारण कहा गया है। इसके सिवाय कषाय का मन्द होना, मृत्यु के समय संक्लेश आदि का नहीं होना, अत्यधिक भद्रपरिणामी होना, छल रहित सरल क्रियाओं का व्यवहार करना, स्वाभाविक विनय का होना तथा शील व्रतों से समुन्नत स्वभाव में अत्यधिक कोमलता का होना ये सब उसी के विस्तार हैं ।। ४३ ।। सरागसंयम, संयमासंयम, बालतप, अकाम निर्जरा, और उत्कृष्ट सम्यक्त्व इन सब को विद्वान् लोग देवायु का उत्कृष्ट कारण कहते हैं ॥ ४४ ॥
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तदनन्तर आगम के ज्ञाता पुरुष योगों की कुटिलता तथा सहधर्मीजनों के साथ होने वाले विसंवाद को अशुभनाम कर्म का आस्रव कहते हैं शुभनाम का आस्रव उससे विपरीत है ॥ ४५ ॥ सम्यक्त्व की शुद्धि, विनय को अधिकता, शील और व्रतों में अनतिचार, अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग, शक्ति के अनुसार त्याग, शक्ति के अनुसार निष्काम उत्कृष्ट तपस्या, संवेगता, साधु समाधि, वैयावृत्य करने में आदर सहित तत्परता, जिनागम, आचार्य और बहुश्रुत जीवों में भक्ति, प्रवचन में भक्ति, प्रवचन में वात्सल्य, आवश्यकापरिहाणि, और प्रकट रूप से अत्यधिक मार्ग प्रभावना करना इन सब को आर्य पुरुष आश्चर्यकारक तीर्थंकर प्रकृति के आस्रव का निमित्त कहते हैं ।। ४६-४८ ।। अपनी प्रशंसा करना, दूसरों की अत्यधिक निन्दा करना, सत्पुरुषों के गुणों को छिपाना और असत्पुरुषों के गुणों को अथवा अविद्यमान गुणों को प्रकट करना इन सब को नीच
१. प्रतिसंवादन म० ।