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वर्धमानचरितम्
उपलक्षय सूक्ष्मसाम्परायं नृप चारित्रमनुत्तरं तुरीयम् । अतिसूक्ष्मकषायतस्तत्प्रवदन्तीह यथार्थनाम सन्तः ॥ १२८
उपजातिः
जिनैर्यथाख्यातमिति प्रतीतं चारित्रमुक्तं खलु पञ्चमं तत् । चारित्रमोहोपशमात्क्षयाच्च याथात्म्यमात्मा समुपैति येन ॥१२९ अथावगच्छ द्विविधं तपस्त्वं बाह्यं सदाभ्यन्तरमित्यपीष्टम् । प्रत्येकमेकं खलु षड्विधं तद्वक्ष्ये समासेन तयोः प्रभेदान् ॥ १३० शार्दूलविक्रीडितम्
रागस्य प्रशमाय कर्मसमितेर्नाशाय दृष्टे फले
हृद्ये चाप्यनपेक्षणाय विधिवद् ध्यानागमावाप्तये । सिद्धचै संयम संपदोऽप्यनशनं धीरः करोत्यादरात्
तेनैकेन हि नीयते मतिमतां दुष्टं मनो वश्यताम् ॥१३१
जो चारित्र है उसे तृतीय चारित्र जानो । समस्त प्राणियों के वध से जो उत्कृष्ट निवृत्ति है वही परिहार विशुद्धि इन नाम से कही गई है । भावार्थ- जो तीस वर्ष तक घर में सुख से रहकर मुनिदीक्षा लेते हैं तथा आठ वर्ष तक तीर्थंकर के पाद मूल में रहते हुए प्रत्याख्यान पूर्व का अध्ययन करते हैं उनके शरीर में तपश्चरण के प्रभाव से ऐसी विशेषता उत्पन्न हो जाती है कि उसके द्वारा जीवों का विघात नहीं होता । इस संयम के धारक मुनि वर्षाकाल को छोड़कर शेष समय प्रतिदिन दो कोश प्रमाण गमन करते हैं । यह संयम छठवें और सातवें गुण स्थान में ही होता है ।। १२७ ।। हे राजन् ! सूक्ष्म साम्पराय नाम का चौथा उत्कृष्ट चारित्र है । इसमें कषाय अत्यन्त सूक्ष्म रह जाती है। इसलिये सत्पुरुष इसे सार्थक नाम वाला कहते हैं ।। १२८ ॥ जिनेन्द्र भगवान् ने जो पञ्चम चारित्र कहा है वह यथाख्यात इस नाम से प्रसिद्ध है । यह चारित्र मोह कर्म के उपशम और क्षय से होता है । इस चरित्र के द्वारा आत्मा अपने यथार्थ रूप को प्राप्त होता है । भावार्थ - यथाख्यात चारित्र के दो भेद हैं एक औपशमिक और दूसरा क्षायिक । चारित्र मोह के उपशम से होनेवाला ओपशमिक कहलाता है और क्षय से होनेवाला क्षायिक । औपशमिक यथाख्यात ग्यारहवें गुण स्थान में होता है और क्षायिक यथाख्यात बारहवें आदि गुणस्थानों में होता है ।। १२९ ॥
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हे राजन् ! अब तुम दो प्रकार के तप को समझो। यह तब बाह्य और आभ्यन्तर भेद वाला है तथा मोक्ष प्राप्ति के लिये इसके दोनों ही भेद सदा अभीष्ट । इन दोनों भेदों में प्रत्येक के छह-छह भेद हैं आगे संक्षेप से उन्हीं के प्रभेदों को कहूँगा ॥ १३० ॥ राग का प्रशमन करने के लिये, कर्म समूह को नष्ट करने के लिये प्रत्यक्ष फल मनोहर भी हो तो उसमें उपेक्षा करने के 'लिये, विधि पूर्वक ध्यान और आगम की प्राप्ति के लिये, तथा संयम रूपी संपदा की सिद्धि के लिये वीर मुनि आदरपूर्वक अनशन तप करते हैं क्योंकि उस एक ही तप के द्वारा बुद्धिमानों का दुष्ट मन अधीनता को प्राप्त हो जाता है । भावार्थ – अन्न पान खाद्य और लेह्य इन चार प्रकार