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पञ्चदशः सर्गः
शालिनी आत्मात्मीयायाः स्वसंकल्पबुद्धः सम्यक्त्यागो यः प्रणीतो जिनेन्द्रः। स व्युत्सर्गो द्विप्रकारः प्रतीतो ध्यानं चातः सप्रभेदं प्रवक्ष्ये ॥१३९
उपजातिः अवेहि सत्संहननस्य सूक्तमेकाग्रचिन्तासुनिरोध एव।। ध्यानं जिनेन्द्रः सकलावबोधैरान्तर्मुहूर्तादथ तच्चतुर्धा ॥१४० आत्तं च रौद्रं नरनाथ धयं शुक्लं च तद्भद इति प्रणीतः। संसारहेतू प्रथमे प्रदिष्टे स्वर्मोक्षहेतू भवतः परे द्वे ॥१४१
शार्दूलविक्रीडितम् आतं विद्धि चतुर्विधं स्मृतिसमन्वाहार इष्टेतरा
वाप्तौ तद्विरहार्य चेष्टविरहे तत्सङ्गमायेति यः । अप्यत्युद्धतवेदनामिहतये घोरं निदानाय तत्
प्रादुर्भूतिरुदाहृता खलु गुणस्थानेषु षट्स्वादितः ॥१४२
धर्मोपदेश के भेद से पांच भेद हैं । १३८ । आत्मा और आत्मीय पदार्थों में 'ये मेरे हैं' इस प्रकार की संकल्प बुद्धि का जो भले प्रकार त्याग किया जाता है उसे जिनेन्द्र भगवान् के व्युत्सर्ग तप कहा है । यह प्रसिद्ध तप बाह्य और आभ्यन्तर उपाधि के त्याग की अपेक्षा दो प्रकार का है । अब इसके आगे उत्तर भेदों से सहित ध्यान का निरूपण करूंगा ॥ १३९ ॥
संपूर्ण ज्ञान के धारक जिनेन्द्र भगवान् ने, उत्तम संहनन वाले जीव का अन्तमूर्हत तक के लिये किसी एक पदार्थ में चिन्ता का जो रुकना ही ध्यान कहा है ऐसा जानो । वह ध्यान चार प्रकार का है ।। १४० ॥ हे नरनाथ ! आर्त, रौद्र, धर्म्य और शुक्ल ये ध्यान के भेद कहे गये हैं, इनमें प्रारम्भ के दो ध्यान संसार के हेतु कहे गये हैं और आगे के दो स्वर्ग तथा मोक्ष के कारण हैं ॥१४१।। अनिष्ट पदार्थ की प्राप्ति होने पर उसके वियोग के लिये बार-बार विचार करना, इष्ट का वियोग होने पर उसके संयोग के लिये बार-बार विचार करना, तीव्र वेदना को दूर करने के लिये तथा भोगाकाङ्गा रूप निदान के लिये बार बार विचार करना यह चार प्रकार आर्तध्यान है ऐसा जानो। इस आर्तध्यान की उत्पत्ति प्रारम्भ के छह गुणस्थानों में होती है। भावार्थ-आत्ति का अर्थ दुःख है उस दुःख के समय जो ध्यान होता है वह आर्तध्यान कहलाता है 'आतौँ भवम् आतम्' यह उसकी व्युत्पति है। यह आति चार कारणों से होती है अनिष्ट संयोग, इष्ट वियोग, तीव्र रोग जन्य पीड़ा, और भोग प्राप्ति को उत्कट अभिलाषा । उपर्युक्त चार कारणों की अपेक्षा आर्तध्यान के चार भेद माने गये हैं। यह आर्तध्यान पहले से प्रारम्भ कर छठवें गुणस्थान तक होता है परन्तु निदान जनित आर्तध्यान छठवें गुणस्थान में नहीं होता। वह पांचवें गुण स्थान तक ही होता
१. एक : म० । २. रन्तर्मुहूर्तादथ म० । ३. भवेद्भद इति प्रणीतः व० । ४. वाप्तेस्तद्विरहाय म०