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वर्धमानचरितम्
द्वावन्य क्रमतः प्रमादरहितावुक्तौ चतुर्णां पुनः
शान्तक्षीणकषाययोरपि जिनस्यैकः सयोगस्य च । योगो योगविर्वाजतो जिनपतिनिर्मुक्तबन्धक्रियो '
बन्धो योगनिमित्तको हि विगमे तेषां कथं जायते ॥ ६७ वियोगिनी
नितरां सकषाप्रभूतः खलु जीवो नृप कर्मणः क्षमान् । परमावहतीति पुद्गलान्स तु बन्धः परिकीर्तितो जिनैः ॥६८ मालभारिणी
प्रकृतिः स्थितिरप्युदारबोधैरनुभागश्च समासतः प्रदेशः । इति तद्विधयः प्रकीर्तिता यैस्तनुमाञ्जन्मवनेषु बम्भ्रमति ॥ ६९
उपजातिः
प्रकृति प्रदेश बन्धौ भवेतां तनुभृद्गणानाम् ।
सदा परौ द्वौ च कषायहेतू स्थितिश्च राजन्ननुभागबन्धः ॥७० इन्द्रवज्रा
ज्ञानावृतिर्दृष्टिवृतिश्च वेद्यं मोहायुषी नाम च नामतोऽमी । गोत्रान्तरायाविति सम्यगष्टावाद्यस्य बन्धस्य भवन्ति भेदाः ॥७१
और योग ये बन्ध के कारण हैं । षष्ठगुणस्थानवर्ती मुनि के अविरति भी छूट जाती है इसलिये प्रमाद कषाय और योग ये तीन हो बन्ध के कारण हैं ऐसा ज्ञानी जनों ने कहा है ।। ६६ ।। उसके आगे सप्तम, अष्टम नवम और दशम इन चार गुणस्थानवर्ती जीवों के प्रमाद भी छूट जाता है अतः Share और योग ये दो बन्ध के कारण कहे गये । उपशान्त मोह, क्षोणमोह और सयोग केवली जिन, इनके एक योग ही बन्ध का कारण है। अयोगकेवली भगवान् बन्ध क्रिया से क्योंकि बन्ध योग के निमित्त से होता है अतः योगों का अभाव होने पर उनके बन्ध सकता है ? ।। ६७ ।।
हे राजन् ! यह जीव निश्चय से अत्यन्त सकषाय होने के कारण कर्म रूप होने के योग्य पुद्गल परमाणुओं को जो ग्रहण करता है जिनेन्द्र भगवान् ने उसे ही बन्ध कहा है ।। ६८ ।। उत्कृष्ट ज्ञान के धारक जीवों ने संक्षेप से बन्ध के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश ये चार भेद क हैं । इन बन्धों के कारण ही यह जीव संसार रूपी वन में निरन्तर भ्रमण करता है ।। ६९ ।। हे राजन् ! जीवों के प्रकृति और प्रदेश से ये दो बन्ध योग निमित्तक हैं और शेष दो— स्थिति तथा अनुभाग बन्ध कषाय हेतुक हैं ॥ ७० ॥ नाम की अपेक्षा प्रकृति बन्ध के ज्ञानावरण, दर्शनावरण,
१. बन्धत्रयो म० । २. सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान्पुद्गलानादत्ते स बन्धः - त० सू० ।
३. जोगा पयडिपदेसा ठिदि अणुभागा कसायदो होंति ।
अपरिणदुच्छिण्णेसु य बंधट्टिदिकारणं णत्थि ॥
रहित हैं। कैसे हो
कर्मकाण्ड |