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पञ्चदशः सर्गः
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वसन्ततिलकम् क्तास्तु पञ्च नव च क्रमतस्तथा द्वौ
__षड्भिर्युता मुनिवृषैरथ विंशतिश्च । टो द्वयाहतौ नृवर सप्तयुता च षष्टि
द्वौ चोत्तरप्रकृतिबन्धविधाश्च पञ्च ॥७२
शार्दूलविक्रीडितम् आद्यानां तिसृणां परा स्थितिरथो त्रिंशत्समुद्रोपमा
कोटीकोटय इति ब्रुवन्ति सुधियो धीरान्तरायस्य च। मोहाख्यस्य च सप्ततिद्विगुणिता पङ्क्तिश्च नाम्नस्तथा गोत्रस्य त्रिभिरायुषोऽपि सहितास्त्रिशत्समुद्रोपमाः ॥७३
उपजाति: द्विषण्मुहूर्ता ह्यपरा स्थितिः स्याद्वेद्यस्य चाष्टावपि नामगोत्रयोः । अथेतरेषां कथिता च राजन्नन्तर्मुहूर्तेति समस्तवेदिभिः ॥७४
वेदनीय, मोह, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय ये आठ भेद अच्छी तरह होते हैं ॥७१ ॥ हे नरश्रेष्ठ ! मुनिराजों ने क्रम से पांच, नौ, दो, छब्बोस, चार, सड़सठ, दो और पांच इस प्रकार उत्तर प्रकृति बन्ध के भेद कहे हैं । भावार्थ-ज्ञानावरण के पांच, दर्शनावरण के नौ, वेदनीय के दो, मोहनीय के छब्बीस, आयु के चार, नाम के सड़सठ, गोत्र के दो और अन्तराय के पांच उत्तरभेद हैं । भावार्थ-आगम में मोह कर्म के अट्ठाईस भेद बतलाये गये हैं यहाँ छब्बीस भेद कहने का तात्पर्य यह है कि उन अट्ठाईस में सम्यङ्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति इन दो का बन्ध नहीं होता उनका मात्र सत्त्व और उदय रहता है। यहाँ बन्ध का प्रकरण होने से उन दो को छोड़ कर शेष छब्बीस भेद ही कहे गये हैं। इसी प्रकार नाम कर्म के अभेद विवक्षा में ब्यालीस और भेद विवक्षा में तेरानवे भेद कहे गये हैं। यहां सड़सठ भेद कहने का तात्पर्य यह है कि आचार्यों ने कर्मों की बन्ध दशा में पांच बन्धन और पांच संघात को पांच शरीरों में ही गभित किया है इसी तरह रूप. रस, गन्ध और स्पर्श इनके बीस भेदों का ग्रहण न कर बन्धदशा में चार का ही ग्रहण किया है इस तरह दस और सोलह इन छब्बीस प्रकृतियों को तेरानवे प्रकृतियों में से कम करने पर नाम कर्म की सड़सठ प्रकृतियां ही शेष रहती हैं ॥७२॥ हे धीर ! आदि के तीन तथा अन्तराय इन चार कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ा-कोड़ी सागर, मोह की सत्तर कोड़ा कोड़ी सागर, नाम और गोत्र की बोस कोडा-कोडी सागर और आयु कर्म की तेतीस सागर उत्कृष्ट स्थिति है ऐसा सुधीजन-ज्ञानीजन कहते हैं ॥ ७३ ।। हे राजन् ! वेदनीय कर्म की बारह मुहूर्त, नाम और गोत्र को आठ मुहूर्त तथा शेष कर्मों को अन्तर्मुहूर्त प्रमाण जघन्य स्थिति सर्वज्ञ देव ने कही है ।। ७४ ।।