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पञ्चदशः सर्गः
शार्दूलविक्रीडितम् नामप्रत्ययसंयुता इति जिनैः प्रोक्ताः समं सर्वतो
योगानां सुविशेषतः समुदिताः सूक्ष्माः स्थिताः पुद्गलाः। एकक्षेत्रमनुप्रविश्य सकलेष्वात्मप्रदेशेषु ये
ऽनन्तानन्तघनप्रदेशसहिताः कर्मत्वमायान्ति ते ॥७८
उपजातिः सद्वेदनीयं शुभयुक्तमायुः सन्नामगोत्रे च वदन्ति पुण्यम्। जिनैस्ततोऽन्यत्खलु पापमुक्तं सत्संवरं व्यक्तमथाभिधास्ये ॥७९ जिनैनिरोधः परमात्रवाणामुदाहृतः संवर इत्यमोघेः । स द्रव्यभावद्वितयेन भिन्नः स्याद् द्विप्रकारो मुनिभिः प्रशस्यः ॥८०
वंशस्थम्
मुनीश्वरैः संसृतिकारणक्रियानिवृत्तिरुक्तः खलु भावसंवरः ।
स तन्निरोधे सति कर्मपुद्गलग्रहैकविच्छित्तिरपीतरो मतः ॥८१ प्रकृतियाँ लता आदि चारों स्थानों से और शेष एक सौ सात प्रकृतियाँ लता भाग को छोड़कर शेष तीन स्थानों से अनुभाग बन्ध को प्राप्त होती हैं ।। ७७ ॥ जिनेन्द्र भगवान् ने ऐसा कहा है कि कर्म प्रकृतियों के कारण से सहित, एक साथ सब पर्यायों में योगों की विशेषता से इकटे हए, सूक्ष्म, एक क्षेत्रावगाह रूप से समस्त आत्म प्रदेशों में स्थित, अनन्तानन्त घन प्रदेशों से सहित जो पुद्गल परमाणु हैं वे ही कर्मपन को प्राप्त होते हैं, यही प्रदेश बन्ध कहलाता है । भावार्थअसंख्यात प्रदेशी आत्मा के समस्त प्रदेशों में योग विशेष से संचित जो अनन्तानन्त कार्मण वर्गणारूप पुद्गल परमाणु अवस्थित हैं वे ही रागादि भावों का निमित्त पाकर कर्मरूप परिणत हो जाते हैं। इस जीव के प्रत्येक समय सिद्धों के अनन्तवें भाग और अभव्य राशि से अनन्तगुणें कर्म परमाणुओं के पिण्डरूप समय प्रबद्ध का बन्ध होता है। बन्ध होते ही उस समयप्रबद्ध का ज्ञानावरणादि सात कर्मों और आयुबन्ध के समय आठ कर्मों में विभाग हो जाता है। सबसे अधिक भाग वेदनीय को प्राप्त होता है उससे कम मोहनीय को उससे कम किन्तु परस्पर में समान ज्ञानावरण दर्शनावरण अन्तराय को, उससे कम किन्तु परस्पर में समान नाम और गोत्र को तथा सबसे कम भाग आयु को प्राप्त होता है। प्रदेश बन्ध का मुख्य कारण योग है । ७८॥ साता वेदनीय, शुभ आयु ( तिर्यञ्च, मनुष्य और देव ), शुभ नाम और शुभ गोत्र को पुण्य कर्म कहते हैं इससे शेष कर्म को जिनेन्द्र भगवान् ने पाप कर्म कहा है। अब इसके आगे स्पष्ट रूप से संवरतत्त्व का कथन करेंगे ॥ ७९ ॥
जीवन को सार्थक करने वाले जिनेन्द्र भगवान् ने आस्रवों के अच्छी तरह रुक जाने को संवर कहा है। यह संवर द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार का होता है। यह दोनों ही प्रकार का संवर मुनियों के द्वारा प्रशंसनीय है ॥ ८० ॥ मुनीश्वरों ने संसार के कारणभूत क्रियाओं से