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वर्धमानचरितम्
पञ्चदशः सर्गः शालिनी
पप्रच्छाथ प्राञ्जलिर्भक्तिनम्रः क्षोणीनाथो मोक्षमार्गं जिनेन्द्रम् | ज्ञात्वा दौःस्थ्यं संसृतेरप्रमेयं भव्यः को वा सिद्धये नोत्सहेत ॥ १ सर्वान्सत्त्वान्भिन्नजातीन्विमुक्तेर्मार्गं भव्यान्बोधयन्नेवमूचे । वाचं वाचामीशिता दिव्यनादव्याप्तास्थानं निश्चिताशेषतत्त्वः ॥२ स्यात्सम्यक्त्वं निर्मलं ज्ञानमेकं सच्चारित्रं चापरं चक्रपाणे । मोक्षस्यैतान्येव मार्गः परोऽयं न व्यस्तानि प्राणिनः संमुमुक्षोः ॥३ तत्वार्थानां तद्धि सम्यक्त्वमुक्तं श्रद्धानं यन्निश्चयेनावबोधः । तेषामेव ज्ञानमेकं यथावत्स्याच्चारित्रं सर्वसङ्गेष्वसंङ्गः ॥४ जीवाजीव पुण्यपापास्रवाश्च प्रोक्ताः सार्वैः संवरो निर्जरा च । बन्धो मोक्षश्चेति लोके जिनेन्द्रैरिन्द्राभ्यच्यैः सन्नवैते पदार्थाः ॥५ जीवास्तेषु द्विप्रकारेण भिन्नाः संसारस्था निर्वृताश्चेति तेषाम् । स्यात्सामान्यं लक्षणं चोपयोगः सोऽपि द्वयष्टाष्टार्थभेदैविभक्तः ॥ ६
जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार किया जो जन्मरहित थे, मरणरहित थे, अपरिमेय थे, केवलज्ञान रूपी नेत्र से सहित थे, चतुर्णिकाय के देवों से सेवित थे और श्रेष्ठ अञ्जलियों के द्वारा स्तुति करने के योग्य थे ।। ५३ ।।
इस प्रकार असग कविकृत श्रीवर्द्धमानचरित में प्रियमित्र चक्रवर्ती की उत्पत्ति का वर्णन करने वाला चौदहवाँ सर्ग समाप्त हुआ
पन्द्रहवाँ सर्ग
तदनन्तर भक्ति से नीभूत राजा प्रियमित्र ने हाथ जोड़ कर जिनेन्द्र भगवान् से मोक्षमार्ग पूछा सो ठीक ही है क्योंकि संसार के अपरिमित दुःख को जान कर कौन भव्यजीव मुक्ति के लिये उत्साहित नहीं होता है ? ॥ १ ॥ जो वचनों के स्वामी थे तथा समस्त तत्त्वों का जिन्होंने निश्चय कर लिया था ऐसे जिनेन्द्र भगवान् भिन्न-भिन्न जाति के समस्त भव्यजीवों को मुक्ति का मार्ग बताते हुए इस प्रकार के वचन बोले । उस समय भगवान् को दिव्यध्वनि से समस्त समवसरण गूंज रहा था || २ || हे चक्रवर्तिन् ! निर्मल सम्यग्दर्शन, अद्वितीय ज्ञान और उत्कृष्ट सम्यक्वारित्र ये तीन मिलकर ही मोक्षाभिलाषी जोव के लिये मोक्ष का उत्कृष्ट मार्ग हैं पृथक्-पृथक् नहीं ॥ ३ ॥ तत्त्वार्थी की श्रद्धा करना सम्यक्त्व कहा गया है, निश्चय से उनका जानना अद्वितीय ज्ञान है और समस्त परिग्रहों में अनासक्त रहना यथोक्त चारित्र है ॥ ४ ॥ जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष ये नौ पदार्थ सर्वहितकारी तथा इन्द्रों के द्वारा पूज्य जिनेन्द्र भगवान् [ ने लोक में कहे हैं ॥ ५ ॥ उन पदार्थों में जीव दो प्रकार के हैं - एक संसारी और
१. सावः म० ।