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पञ्चदशः सर्गः
संसारस्थास्ते त्वनेकप्रकारा नानायोनिस्थानगत्यादिभेदैः । उक्ता नानादुःखदावे दुरन्ते जन्मारण्येऽनादिकालं भ्रमन्तः ॥७ "गत्यक्षाणि स्थानभेदानशेषान् सौख्यं दुःखं सर्वलोकत्रयेऽपि । भावैरेभिः कीर्त्यते वीतरागः प्राप्नोतीति व्यक्तमात्मा जिनेन्द्रः ॥८ भावाः पञ्च क्षायिकाद्यादयः स्युर्जीवस्याहुस्तत्त्वमित्याप्ततत्त्वाः । भेदास्तेषां द्वौ नवाष्टादशापि प्रोक्ताः सैका विंशतिश्च त्रयोऽपि ॥९ सम्यक्त्वं स्यात्सच्चरित्रं स चाद्यो भेदस्ताभ्यां क्षायिकस्यापि सार्धम् । ज्ञानं लाभो दर्शनं भोगवीर्ये' ज्ञेया दानं चोपभोगश्च भेदाः ॥१० अज्ञानानि त्रीणि चत्वारि सद्भिः संज्ञानानि त्रीण्यथो दर्शनानि । मिश्रस्योक्ता लब्धयः पञ्च सार्द्ध ताभ्यां भेदाः संयता संयताश्च ॥११ अज्ञानं च त्रीणि लिङ्गानि लेश्याषट्कं मिथ्यादर्शना संयतौ च । चत्वारश्च स्युः कषायास्त्वसिद्धोऽप्यष्टार्थैते भव्य तुर्यस्य भेदाः ॥१२
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दूसरे मुक्त | उन जीवों का सामान्य लक्षण उपयोग है । वह उपयोग भी दो आठ और चार भेदों से विभक्त है । भावार्थ - मूल में उपयोग के दो भेद हैं एक ज्ञानोपयोग और दूसरा दर्शनोपयोग। इनमें से ज्ञानोपयोग के मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान, केवलज्ञान, कुमति, कुत और अवधि के भेद से आठ भेद हैं और दर्शनोपयोग के चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन, अवधि दर्शन और केवल दर्शन के भेद से चार भेद हैं ॥ ६ ॥ जो नाना योनि स्थान तथा गति आदि के भेद से अनेक प्रकार के हैं तथा नाना दुःख रूपी दावानल से परिपूर्ण इस दुःखदायक संसार रूपी वन में अनादि काल भ्रमण कर रहे हैं वे संसारी जीव कहे गये हैं ॥ ७ ॥ यह जीव, समस्त तीनों लोकों में इन भावों के द्वारा गति, इन्द्रिय, समस्त स्थानों - जीव समासों के भेद सुख और दुःख को प्राप्त होता है ऐसा वीतराग जिनेन्द्र भगवान् स्पष्ट कथन करते हैं ॥ ८ ॥ क्षायिक आदि पाँच भाव जीव के तत्त्व हैं ऐसा तत्त्व को प्राप्त करने वाले जिनेन्द्र भगवान् कहते हैं । उन तत्त्वों के दो, नौ, अठारह, इक्कीस और तीन भेद कहे गये हैं । भावार्थ - औपशमिक के दो, क्षायिक के नौ, क्षायोपशमिक के अठारह, औदयिक के इक्कीस और पारिणामिक के तीन भेद हैं ॥ ९ ॥ सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र यह पहला भेद है अर्थात् औपशमिक भाव के सम्यग्दर्शन तथा सम्यक् चारित्र ये दो भेद हैं । इन दोनों के साथ ज्ञान, दर्शन, दान लाभ भोग उपभोग और वीर्य के मिलाने से क्षायिक भाव के नो भेद होते हैं ॥ १० ॥ उन सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र के साथ तीन अज्ञान - कुमति, कुश्रुत, कुअवधि, चार सम्यग्ज्ञानसुमति, सुश्रुत, सुअवधि और मन:पर्ययज्ञान, तीन दर्शन-चक्षुर्दर्शन अचक्षुर्दर्शन और अवधि दर्शन, पाँच लब्धियां - दान लाभ भोग उपभोग और वीर्य तथा संयमासंयम इन सोलह के मिलाने से क्षायोपशमिक भाव के अठारह भेद कहे गये हैं ॥ ११ ॥ अज्ञान एक, तीन लिङ्ग - स्त्री, पुरुष और नपुंसक लिंग, छह लेश्याएँ – कृष्ण नील कापोत पीत पद्म और शुक्ल, मिथ्यादर्शन, और असंयत, चार कषाय - क्रोध मान माया और लोभ तथा असिद्धत्व ये सब मिलकर औदयिक भाव
१. गत्यसाणां स्थानभेदेन शेषं म० । २. वीर्यौ म० ।
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