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वर्धमानचरितम्
स्यान्मात्सर्य चान्तरायप्रदोषौ निह्न त्यामासादनं चोपघातः। इत्यात्मज्ञैरास्रवो देहभाजां ज्ञानस्योक्तो दर्शनस्यावृतेश्च ॥२६ दुःखं शोकाक्रन्दने देहभाजां तापो हिंसादेवनं पर्युपेतम् । एतान्यात्मान्योभयस्थानि चासद्वेद्यस्याहुः कारणान्यास्रवस्य ॥२७ कृत्स्ने भूते चानुकम्पा व्रताढये दानं साधू सानुरागादिना च । योगः क्षान्तिः शौचमित्येवमादिः सद्वेद्यस्याप्यास्त्रवस्य प्रभेदाः॥२८ संघो धर्मः केवली च श्रुतं यत्सर्वज्ञोक्तं नाकिनश्चाप्यमीषाम् । सार्वैरुक्तोऽवर्णवाबो यतीन्द्रर्हेतुर्जन्तोदृष्टिमोहास्रवस्य ॥२९
उपजातिः तीव्रः परं यः परिणामभेदो भवेत्कषायोदयतः स बाढम । चारित्रमोहास्रवहेतुरुक्तो जीवस्य जीवादिपदार्थविभिः ॥३० उत्पादनं स्वस्य परस्य चार्तेः कषायजातं यतिदूषणं वा। संक्लिष्टलिङ्गवतधारणादिः कषायवेद्यास्रवकारणं स्यात् ॥३१
दिक तथा क्रोधादि कषायों के कारण एक सौ आठ भेद हैं तथा अजीवाधिकरण आस्रव निर्वर्तना आदि भेदों से युक्त कहा गया है । भावार्थ-संरम्भ समारम्भ आरम्भ, मन वचन काय योग, कृत कारित अनुमोदना और क्रोध मान माया लोभ इनका परस्पर गुणा करने से ३ ४ ३ = १४३ = २७४४ % १०८ साम्परायिक आस्रव के एक सौ आठ भेद होते हैं और मूलगुणनिर्वर्तना तथा उत्तर गुण निर्वर्तना के भेद से दो प्रकार को निर्वर्तना, अप्रमृष्टनिक्षेप, दुःप्रमृष्टनिक्षेप, सहसानिक्षेप और अनाभोग निक्षेप के भेद से चार प्रकार का निक्षेप, भक्तपान संयोग और उपकरण संयोग के भेद से दो प्रकार का संयोग तथा मनोनिसर्ग वचननिसर्ग और कार्यनिसर्ग के भेद से तीन प्रकार का निसर्ग इस तरह ग्यारह प्रकार का अजीवाधिकरण आस्रव है ॥ २५ ॥
मात्सर्य, अन्तराय, प्रदोष, निह्नव, आसादन और उपघात, इस प्रकार आत्मज्ञ आचार्यों ने प्राणियों के लिये ज्ञानावरण तथा दर्शनावरण का आस्रव कहा है॥ २६ ॥ दःख. शोक. आक्रन्दन, ताप, हिंसा और परिदेवन, ये अपने विषय में हों, दूसरे के विषय में हों अथवा दोनों के विषय में हों, प्राणियों के लिये असातावेदनीय के. आस्रव कहे गये हैं ।। २७ ।। समस्त प्राणियों तथा प्रमुख रूप से व्रतीजनों पर अनुकम्पा, दान सरागसंयमादि योग, शान्ति और शौच इत्यादि कार्य सातावेदनीय कर्म के आस्रव के प्रभेद हैं ॥ २८ ॥ सङ्घ, धर्म केवली, सर्वज्ञप्रणीत शास्त्र और देव, इनका अवर्णवाद-मिथ्यादोष कथन, सर्वहितकारी आचार्यों के द्वारा जीवों के लिये दर्शन मोह कर्म का आस्रव कहा गया है ॥ २९ ॥ कषाय के उदय से जीव का जो तीव्र या मन्द परिणाम होता है उसे जीवादि पदार्थों को जानने वाले आचार्यों ने अच्छी तरह चारित्र मोह कर्म का आस्रव कहा है ॥ ३० ॥ निज और पर को पीड़ा उत्पन्न करना, कषाय उत्पन्न होना, मुनियों को दोष लगाना, तथा संक्लेश बढ़ाने वाले लिङ्ग और व्रतों का धारण करना यह सब कषाय वेदनीय