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चतुर्दशः सर्गः
अक्षाणां वशमुपगम्य पापकार्ये संसक्तः सुखलवलिप्सया निकामम् । नो पश्यत्यपरभवे विचित्रदुःखं जीवानामहित रतिः परं स्वभावः ॥४८ संपत्तिस्तडिदिव चञ्चला समग्रा तारुण्यं तृणगतदावदीप्तिकल्पम् । fi नायुर्गलति पदे पदे समस्तं निःशेषं दलितघटाम्बुवन्नराणाम् ॥४९ बीभत्से प्रकृतिविनश्वरे निकामं दुःपूरे बहुविधरोगवासगेहे । विण्मूत्रक्षतज सुपूर्ण जीर्णभाण्डे ' को विद्वान्वपुषि करोति बन्धुबुद्धिम् ॥५० संसारस्थितिमिति चेतसा विनिन्द्य क्षोणीशः स्वयमचिराय मोक्षमार्गम् । जिज्ञासुजिन मभिवन्दितुं प्रतस्थे प्रस्थानप्रहतमृदङ्गहूतभव्यः ॥५१ तेनाथ समवसृतिः प्रसन्नभव्यश्रेणीभिः परिकरिताभितो जिनेन्द्रम् २ | आसेदे सुरपदवीव तारतारमध्यस्थप्रविमलपूर्णचन्द्रलक्ष्मीः ॥५२ मालिनी
अजममरममेयं केवलज्ञाननेत्रं
चतुर मरनिकायैः सेवितं प्राञ्जलीड्यम् ।
द्विगुणितशमसंपद्भक्तिनम्रोत्तमाङ्गः
सकलनरपतीन्द्रस्तं ववन्दे जिनेन्द्रम् ॥५३ इत्यसकृते श्रीवर्द्धमानचरिते प्रियमित्रचक्रवर्तिसंभवो नाम चतुर्दशः सर्गः
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गुण में लीन नहीं होता ॥ ४७ ॥ इन्द्रियों की अधीनता को प्राप्त करने की इच्छा से पाप कार्य में अत्यन्त आसक्त हुआ परभव में नहीं देखता है सो ठीक ही है क्योंकि अहित में प्रीति करना ही समस्त संपत्ति बिजली के समान चञ्चल है, योवन तृण में लगी हुई दावानल की दीप्ति के समान है, और फूटे घड़े में रखे हुए पानी के समान मनुष्यों की समस्त आयु क्या पद-पद पर नहीं गल रही है ? अर्थात् अवश्य गल रही है ॥ ४२ ॥ जो घृणित है, स्वभाव से नश्वर है, अत्यन्त दुष्पूर है, नाना प्रकार के रोगों का निवास गृह है और मल-मूत्र तथा रुधिर से भरा हुआ जीर्ण बर्तन है ऐसे शरीर में कौन विद्वान् बन्धु की बुद्धि करता है - उसे बन्धु के समान हितकारी मानता है ? अर्थात् कोई नहीं ॥ ५० ॥
होकर यह जीव अल्पसुख प्राप्त प्राप्त होने वाले विचित्र दुःख को जीवों का स्वभाव है ॥ ४८ ॥
इस प्रकार राजा स्वयं ही अपने चित्त से संसार स्थिति की निन्दा कर शीघ्र ही मोक्षमार्ग को जानने का इच्छुक हो प्रस्थान के समय ताडित मृदङ्ग से भव्यजीवों को बुलाता हुआ जिनेन्द्र भगवान् की वन्दना करने के लिये चला ।। ५१ ।। तदनन्तर उसने उस समवसरण को प्राप्त किया जो प्रसन्न भव्य जीवों को पङ्क्तियों से सहित था, जिनेन्द्र भगवान् के चारों ओर स्थित था तथा विशाल ताराओं के मध्य में स्थित पूर्ण चन्द्रमा से सुशोभित आकाश के समान था ।। ५२ ।। दुगुनी शान्ति संपदा और भक्ति से जिसका शिर नम्रीभूत था, ऐसे चक्रवर्ती ने उन
१. भाण्डगे हे म० । २. जिनेन्द्रः म० ।