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वर्धमानचरितम् गतिषु गतिमुपैति बन्धदोषाद्भवति गतेर्वपुरिन्द्रियाणि तस्मात् । ननु विषयरतिश्चिराय तेभ्यो विषयरतेः पुनरेव सर्वदोषाः ॥२७ भवसलिलनिधौ पुनःपुनश्च भ्रमणविधिः पुरुषस्य जायतेऽयम् । इति परिकथितो जिनैरनादिय॑यरहितोव्ययसंयुतोऽस्य बन्धः ॥२८ व्यपनय मनसः कषायदोषान्प्रशमरतो भव सर्वथा मृगेन्द्र । जिनपतिविहिते मते करुष्व प्रणयमपास्य च कापथानबन्धम ॥२९ स्वसदृशानवगम्य सर्वसत्त्वान् जहिहि वधाभिरति त्रिगुप्तिगुप्तः । जनयति स कथं परोपतापं ध्र वमवयन्नभिषङ्गमात्मनो यः ॥३० अनियतपथबन्धकारणं त्वं स्वपरभवं विषमं सदा सबाधम्। हरिवर समवाप्तमिन्द्रियैर्यत्सुखभवगच्छ तदेव दुःखमुग्रम् ॥३१ नवविवरसमन्वितं निसर्गादशुचि सदार्तवशुक्रसंभवत्वात् ।
विविधमलयुतं क्षयि त्रिदोषं विविधशिरावलिजालकेन नद्धम् ॥३२ से दूसरी गति को प्राप्त होता है। गति से शरीर, शरीर से इन्द्रियों तथा इन्द्रियों से विषयों की प्रीति को प्राप्त होता है और उस विषय-सम्बन्धी प्रीति से पूनः सब दोषों को प्राप्त होता है ॥२७॥ जीव की यह भ्रमण-विधि संसार रूप सागर में बार-बार होती रहती है। इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान ने जीव के इस बन्ध का कथन किया है। जीव का यह बन्ध अनादि, अनन्त और अनादिसान्त होता है। भावार्थ-आभव्य जीव का यह कर्मबन्ध अनादि, अनन्त और भव्यजीव का अनादि सान्त होता है ॥ २८ ॥ हे मृगेन्द्र ! तुम मन से कषाय-सम्बन्धी दोषों को दूर करो और सब प्रकार से शान्त स्वभाव में लीन होओ। मिथ्या मार्ग का संस्कार छोड़कर जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा प्रतिपादित मन में प्रीति करो ॥ २९ ॥ सब जीवों को अपने समान जानकर तुम मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति इन तीनगुप्तियों से सुरक्षित होते हुए हिंसा की प्रीति को छोड़ो। जो अपने आपके दुःख को जानता है वह निश्चित ही दूसरे को संताप कैसे उत्पन्न कर सकता है ? ॥ ३०॥ हे मृगराज! इन्द्रिय-सम्बन्धी सुख अनियत है-एक रूप नहीं है, बन्ध का कारण है, आत्मातिरिक्त पदार्थों से उत्पन्न होता है, विषम है तथा सदा बाधाओं से युक्त है। वास्तव में इन्द्रियों से जो सुख प्राप्त होता है उसे तुम भयंकर दुःख ही जानो ॥ ३१ ॥ जो स्वभाव से हो नौ १. जो खलु संसारत्थो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो ।
परिणामादो कम्मं कम्मादो होदि गदिसु गदी ॥ १२९ ।। गदिमधिगदस्स देहो देहादो इंदियाणि जायते । तेहिं दु विषयग्गहणं तत्तो रागो व दोषो वा ॥ १३०॥ जायदि जीवस्सेवंभावो संसारचक्कवालम्भि। - इदि जिणवरेहि भणिदो अणादिणिधणो सणिधणो वा ॥ १३० ॥ पञ्चास्तिकाये । २. सपरं वाधासहिदं विच्छिण्णं बंधकारणं विषयम् । ... हिंडदि घोरमपारं संसारं मोहसंछण्णो ॥ ८६ ॥ प्रवचनसार । ३. ३१-३७ श्लोकाः ब प्रती लेखकप्रमादात् भ्रष्टा इति प्रतीयते ।