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वर्धमानचरितम्
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'जिनवचनरसायनं दुरापं श्रुतियुगलाञ्जलिना निपीयमानम् । विषयविषतृषामपास्य दूरं कमिह करोत्यजरामरं न भव्यम् शकलय खलु मार्दवेन मानं हरिवर कोपमपि क्षमावलेन । प्रतिसमयययार्जवेन मायां प्रशमय शौचजलेन लोभवह्निम् ॥४१ शमरतहृदयः परैरजय्याद्यदि न बिभेषि परोषहप्रपञ्चात् । धवलयति तदा त्वदीयशौर्यं त्रिभुवनमेकपदे यशोमहिम्ना ॥४२ अनुपम सुखसिद्धिहेतुभूतं गुरुषु सदा कुरु पञ्चसु प्रणामम् । भवसलिलनिधेः सुदुस्तरस्य प्लव इति तं कृतबुद्धयो वदन्ति ॥४३ अपनय नितरां त्रिशल्यदोषान्खलु परिरक्ष सदा व्रतानि पञ्च । त्यज वपुषि परां ममत्वबुद्धि कुरु करुणार्द्रमनारतं स्वचित्तम् ॥४४ अवगमनमपाकरोत्यविद्यां क्षपयति कर्म तपो यमो रुणद्धि । समुदितमपवर्गहेतुभूतं त्रितयमिति प्रतियाहि दर्शनेन ॥४५ तव भवति यथा पर विशुद्धिर्मनसि तथा नितरां कुरु प्रयानम् । अथ विदितहितैकमासमात्रं स्फुटमवगच्छ निजायुषः स्थितं च ॥४६
जानो । नाना प्रकार के सुदृढ़ कर्मरूपी पाश से छुटकारा जिससे होता है वही आत्मा के लिये सब कुछ है ॥ ३९ ॥ कर्णयुगल रूपी अञ्जली के द्वारा पिया गया यह दुर्लभ जिन वचन रूपी रसायन, विषय रूपी विष से जनित तृषा को दूर हटाकर इस संसार में किस भव्यजीव को अजर और अमर नहीं कर देता है ? ॥ ४० ॥
श्रेष्ठ सिंह ! तुम क्षमा के बल से क्रोध को नष्ट करो, मार्दव के द्वारा मान को खण्ड-खण्ड करो, प्रत्येक समय आर्जव धर्म के द्वारा माया और शोच धर्मं रूपी जल के द्वारा लोभ रूपी अग्नि को शान्त करो ।। ४१ ।। जिसका हृदय प्रशम गुण में लीन हो रहा है ऐसे तुम यदि दूसरों के द्वारा अजेय परीषहों के समूह से भयभीत नहीं होते हो तो तुम्हारी शूर-वीरता एक ही साथ यश की महिमा से तीनों लोकों को सफेद कर सकती है । भावार्थ - तुम्हारा यश तीनों लोंकों में व्याप्त हो जावेगा ॥ ४२ ॥ तुम पञ्च परमेष्ठियों के लिये सदा प्रणाम करो क्योंकि वह प्रणाम अनुपम सुख
प्राप्त कारण है तथा अत्यन्त दुस्तर संसार रूपी समुद्र से पार होने के लिये नौका है ऐसा विद्वज्जन कहते हैं ॥ ४३ ॥ माया मिथ्यात्व और निदान इन तीन शल्यों को सर्वथा हटाओ, पांच व्रतों की सदा रक्षा करो, शरीर में अत्यधिक ममत्व बुद्धि का त्याग करो और अपने चित्त को निरतर करुणा से आर्द्र करो || ४४ ॥ सम्यग्ज्ञान अविद्या को दूर करता है, तप कर्मों का क्षय करता है, चारित्र कर्मों का संवर करता है इस प्रकार सम्यग्दर्शन के साथ मिले हुए यह तीनों मोक्षमार्ग भूत हैं ऐसी प्रतीति करो - दृढ श्रद्धा करो || ४५ || तुम्हारे मन में जिस प्रकार परम विशुद्धता हो उस प्रकार तुम अच्छी तरह प्रयत्न करो । हे आत्महित के ज्ञाता मृगराज ! अब तुम्हारी
१. जिणवयण मोसहमिणं विसयसुहविरेयणं अमिदभूयं ।
जरमरण वाहिहरणं खयकरणं सव्वदुक्खाणं ॥ १७ ॥ - दर्शनप्राभृत.
२. मेकपदं ब० ।