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त्रयोदशः सर्गः
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एकदाथ ससुतो मुनिमुख्याद्धर्ममेकहृदयेन निशम्य । भूपतिः श्रुतपयोनिधिनाम्नो निःस्पृहः समभवद्विषयेषु ॥२१ तं नियुज्य धरणोतलभारे पत्रमश्रकणिकाकूलनेत्रम। संयतोऽजनि नृपः स तदन्ते संसृते वि बिभेति हि भव्यः ॥२२ पूर्वजन्मनि स भावितसम्यग्दर्शनेन विमलीकृतचित्तः । श्रावकव्रतमशेषमुवाह श्रीमतामविनयो हि सुदूरः ॥२३ स्पृश्यते स दुरितेन न राज्ये संस्थितोऽपि खलु पापनिमित्ते । 'सङ्गजितशुचिप्रकृतित्वात्पद्मवत्सरसि पङ्कलवेन ॥२४ शासतोऽपि चतुरम्बुधिवेलामेखलां वसुमतों मतिरस्य । चित्रमेतदनुवासरमासीनिःस्पहेति विषयेऽपि समस्ते ॥२५ बिभ्रतापि नवयौवनलक्ष्मी शान्तता न खलु तेन निरासे । स प्रशाम्यति न किं तरुणोऽपि श्रेयसे जगति यस्य हि बुद्धिः ॥२६ मन्त्रिभिः परिवृतः स तु योगस्थानविद्भिरपि नाभवदुनः। चन्दनः किमु जहाति हिमत्वं सर्पवक्त्रविषवह्नियुतोऽपि ॥२७
तदनन्तर एक समय पुत्र सहित राजा वज्रसेन ने श्रुतसागर नामक मुनिराज से एकचित्त हो कर धर्म का व्याख्यान सुना जिसने वह विषयों में उदासीन हो गया ॥ २१ ॥ जिसके नेत्र अश्रु-कणों से व्याप्त थे ऐसे पुत्र हरिषेण को पृथिवीतल का भार धारण करने में नियुक्त कर राजा वज्रसेन उन्हीं मुनिराज के समीप साधु हो गया सो ठीक ही है क्योंकि पृथिवी पर भव्यजीव संसार से डरता ही है ।। २२ ॥ पूर्वजन्म में अभ्यस्त सम्पग्दर्शन से जिसका चित्त निर्मल हो गया था ऐसे हरिषेण ने श्रावक के समस्त व्रत धारण किये सो ठीक ही है क्योंकि श्रीमन्तों से अविनय बहुत दूर रहता है ।। २३ ।। जिस प्रकार सङ्गरहित उज्ज्वल प्रकृति होने से कमल, तालाब में रहने पर भी कीचड़ के कण से स्पृष्ट नहीं होता है उसी प्रकार वह राजा सङ्गरहित-आसक्ति रहित निर्मल स्वभाव होने से पाप के निमित्तभूत राज्य में स्थित हो कर भी पाप से स्पृष्ट नहीं हुआ था । २४ ।। यद्यपि वह चतुःसमुद्रान्त पृथिवी का शासन करता था तो भी उसकी बुद्धि दिन प्रतिदिन समस्त विषयों में निःस्पृह होती जाती थी यह आश्चर्य की बात थी।॥ २५ ॥ यद्यपि वह नवयौवन रूपी लक्ष्मी को धारण करता था तो भी उसने निश्चय से शान्तभाव को नहीं छोड़ा था सो ठीक ही है क्योंकि जगत् में जिसकी बुद्धि कल्याण के लिये प्रयत्नशील है वह क्या तरुण होने पर भी अत्यन्त शान्त नहीं होता? ॥ २६ ॥ वह यद्यपि योग स्थानों के जानकार मन्त्रियों से घिरा रहता था तो भी उग्र नहीं था कटुक स्वभाव नहीं था सो ठीक ही हैं क्योंकि सर्पमुख की विषाग्नि से सहित होने पर भी क्या चन्दन शीतलता को छोड़ देता है ? अर्थात् नहीं छोड़ देता है ॥ २७
१. सङ्गजित म० ।