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त्रयोदशः सर्गः
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वसन्ततिलकम् इत्थं मनोभववशीकृतकामियुग्मैः
साधं विनिद्रकुमुदाकरनिर्मलश्रीः । राजा शशाङ्ककरनिर्मलरम्यहh
कान्तासखः क्षणमिव क्षणदामनैषीत् ॥७२ आलिङ्गायत्यथ दिशं शशिनि प्रतीची
_गत्वा शनैस्ततकरैः प्रविलोलता'राम् । किश्चिन्निमील्य कुमुदेक्षणमाशु दूरं
सा यामिनी प्रकुपितेव ययौ विवतिम् ॥७३ अध्यास्य वासभवनाजिरमानतारि
बैबोधिकास्तमथ बोधयितुं क्षपान्ते। इत्युज्ज्वलाः श्रुतिसुखस्वरमक्षताङ्गाः
पेठुः सदा प्रतिनिनादितसौधकुञ्जाः ॥७४ कंदपंतप्तमनसामिह दम्पतीनां
धैर्यत्रपाविरहितानि विचेष्टितानि । हीतेव वीक्ष्य रजनी रजनीकरास्यं
___ क्वाप्यानमय्य विमुखी सुमुख' प्रयाति ॥७५
इस प्रकार विकसित कुमुद वन के समान निर्मल शोभा से सम्पन्न स्त्री से युक्त राजा ने काम के वशीभूत अन्य दम्पतियों के साथ चन्द्रमा की किरणों के समान निर्मल मनोहर भवन में रात्रि को क्षण को तरह व्यतीत किया । भावार्थ-स्त्री सहित राजा की विशाल रात्रि एक क्षण के समान पूर्ण हो गयो ।। ७२ ॥ तदनन्तर धीरे से जाकर जब चन्द्रमा फैलाये हुए किरण रूप हाथों से चञ्चल ताराओं-नक्षत्रों (पक्ष में नेत्र की पुतलियों) से युक्त पश्चिम दिशा रूपो स्त्री का आलिङ्गन करने लगा तब रात्रि कुपित होकर ही मानो शोघ्र ही कुमुद रूपी नेत्र को कुछ निमीलित कर विरुद्धता को प्राप्त हो गयी। भावार्थ-धीरे-धीरे चन्द्रमा पश्चिम दिशा के समीप पहुँचा और रात्रि समाप्त होने के सन्मुख हुई ॥ ७३ ॥
तदनन्तर जो उज्ज्वल वेष-भूषा से युक्त थे, अविकलाङ्ग थे और प्रतिध्वनि से जो भवन के निकुञ्जों को सदा शब्दायमान किया करते थे ऐसे स्तुतिपाठक लोग प्रातःकाल के समय निवास-गृह के आँगन में खड़े होकर उस जितशत्रु राजा को जगाने के लिये श्रुति-सुखद स्वर में इस प्रकार पढ़ने लगे ॥ ७४ ।। हे सुमुख ! यहाँ काम से संतप्त हृदय वाले स्त्री-पुरुषों को धैर्य और लज्जा से राहत चेष्टाओं को देख कर रात्रि मानो लज्जित हो गई इसीलिये वह चन्द्रमा रूपी मुख
१. प्रविलोलतारम् प० २. सुमुखा म०