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चतुर्दशः सर्गः
१६९ तं विद्याः प्रथममुपासिरे समस्ताः प्रत्यक्षं मतिविभवेन लोभ्यमानाः । अभ्येतुं झटिति परं समुत्सुकायाः साम्राज्यश्रिय इव दूतिकाः प्रधानाः ॥७ सर्वेषामजनि स भाजनं गुणानां रत्नानामिव जलधिः सुनिर्मलानाम् । लावण्यं दधदपि भूरि तद्धि चित्रं माधुर्य दिशि दिशि यत्ततान लोके ॥८ 'सद्वत्तः सकलकलाधरो वितन्वन्नानन्दं निजमृदुपादसेवकानाम् । सम्पूर्णो विधुरिव भूरिरूपशोभासामग्रीमभिनवयौवनेन भेजे ॥९ संरेजे समदवधूविलोलनेत्रस्त्यक्तान्यैरधिगतसंमदं पतद्भिः। बिभ्राणो मधुसमये प्रसूनलक्ष्मी प्रत्यग्रामलिनिवहैरिवेकचूतः ॥१० अन्यस्मिन्नहनि धनञ्जयो जिनेन्द्रं स क्षेमङ्करमुपगम्य तत्प्रेणीतम् । धर्मं च प्रवणमना निशम्य सम्यक् संसाराद्विरतमतिः परं बभूव ॥११ विन्यस्य श्रियमथ तत्र पुत्रमूख्ये तन्मले सपदि स दीक्षितो विरेजे।
संसारव्यसननिरासिनी मुमुक्षोःशोभायै भवति न कस्य वा तपस्या ॥१२ वह पुत्र ऐसा जान पड़ता था मानो पृथिवी पर मूर्तिधारो यश ही हो ॥ ६ ॥ जो उसे शीघ्र ही प्राप्त करने के लिये अत्यन्त उत्सक साम्राज्य लक्ष्मी को प्रधान दतियों के समान थीं ऐसी समस्त विद्याएँ उसके बुद्धि-वैभव से लुभाई जाकर पहले ही प्रत्यक्ष रूप से उसकी उपासना करने लगी थीं॥७॥ जिस प्रकार समुद्र अत्यन्त निर्मल रत्नों का पात्र होता है उसी प्रकार वह पुत्र भी समस्त निर्मल गुणों का पात्र था । वह यद्यपि बहुत भारी लावण्य-खारापन (पक्ष में सौन्दर्य) को धारण करता था तो भी लोक में प्रत्येक दिशाओं में माधुयं-मिठास ( पक्ष में हर्ष) को विस्तृत करता था यह आश्चर्य की बात थी॥ ८॥
जो सदवत्त-सदाचारी था ( पक्ष में प्रशस्त गोल था ), सकल कलाओं-चौंसठ कलाओं को धारण करने वाला था ( पक्ष में सोलह कलाओं का धारक था) और अपने कोमल पादचरणों (पक्ष में किरणों) की सेवा करने वालों के आनन्द को विस्तृत करता था ऐसा वह प्रियमित्र नवयौवन के द्वारा पूर्ण चन्द्रमा के समान बहुत भारी रूप को शोभा सामग्री को प्राप्त हुआ था। भावार्थ-नवयौवन से उसका शरीर पूर्ण चन्द्रमा के समान सुशोभित होने लगा॥९॥ जिस प्रकार वसन्त ऋतु में नवीन पुष्पलक्ष्मी को धारण करने वाला आम का प्रमुख वृक्ष, पड़ते हुए भ्रमरों के समूह से सुशोभित होता है उसी प्रकार नूतन तारुण्य लक्ष्मी को धारण करने वाला प्रियमित्र अन्य पदार्थों को छोड़कर हर्षपूर्वक पड़ते हुए मदमाती स्त्रियों के चञ्चल नेत्रों से सुशोभित हो रहा था ॥ १०॥
किसी अन्य दिन राजा धनञ्जय ने क्षेमर तीर्थंकर के पास जाकर उनके द्वारा प्रतिपादित धर्म को एकाग्रचित्त से अच्छी तरह सूना जिससे वह संसार से अत्यन्त विरक्तचित्त हो गया ॥११॥ तदनन्तर उस मुख्य पुत्र के लिये राज्यलक्ष्मी सौंपकर वह उन्हीं क्षेमकर तीर्थंकर के पादमूल में
१. सद्वृत्ति प्रकृतियुतं म० । २. तत्प्रणीताम् म० ।
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