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द्वादशः सर्गः
१४७ आकृष्टवान्खेचरकन्यकानां चेतांसि यस्तासु निरादरोऽपि । वपुविशेषेण निजेन राजन्नयांस्ययस्कान्त इव प्रतीतः ॥२५ अमेयगाम्भीर्यगुणस्य दूरादधिज्यचापः प्रतिपाल्य रन्ध्रम् । यस्यास्त कन्तु धनिनो निशीथे सुजाग्रतो भीरुरिवैकचौरः ॥२६ पितुनिदेशात्कनकप्रभायाः स्फुरत्प्रभायाः समवाप्य योगम् । रराज संतापहरः प्रजानां स विद्युता वा नववारिवाहः ॥२७ परस्परं तौ स्ववशं निकामं वधूवरौ निन्यतुरात्मकान्त्या। प्रियेषु यत्प्रेमरसावहत्वं तच्चारुताया हि फलं प्रधानम् ॥२८ स्थातुं निमेषार्धमपि प्रतीतावन्योन्यमुन्मुच्य न शेकतुस्तौ। अनूनलावण्य विशेषलक्ष्मी वेलां समुद्राविव धारयन्तौ ॥२९ लतालये नन्दनकाननान्ते प्रवालशय्यामधिशय्य कान्ताम् । प्रसादयन्कोपविवर्तिताङ्गों रेमे मनाक्प्रस्फुरिताधरोष्ठीम् ॥३० जवानिलाकृष्टपयोधरेण गत्वा विमानेन तया समेतः।
आनर्च माल्यादिभिराहतात्मा जिनालयान्मन्दरसानुभाजः ॥३१ रहती थीं ॥ २४ ॥ जिस प्रकार चुम्बक लोहे को खींच लेता है उसी प्रकार अपने शरीर की विशेषता से सुशोभित रहने वाला वह प्रसिद्ध कनकध्वज उनमें आदरयुक्त न होने पर भी विद्याधर कन्याओं के मन को खींचने लगा था। भावार्थ-यद्यपि यह विद्याधर कन्याओं को नहीं चाहता था तो भी इसकी सुन्दरता के कारण उनका मन इसकी ओर आकृष्ट होता रहता था ॥ २५ ॥
जिस प्रकार सन्धि पाकर कोई अद्वितीय चोर अर्ध रात्रि के समय अच्छी तरह जागते हुए धनिक के पास डरता-डरता जाता है उसी प्रकार अपरिचित गाम्भीर्य गुण से युक्त उस कनकध्वज के समीप दूर से ही धनुष चढ़ाये हए कामदेव डरता-डरता आया था। भावार्थ-वह इतना गम्भीर था कि उसे काम की बाधा सहसा प्रकट नहीं हुई थी ॥ २६ ॥ प्रजाओं के संताप को हरने वाला कनकध्वज, पिता को आज्ञा से देदीप्यमान प्रभा की धारक कनकप्रभा का योग पाकर बिजली से संयुक्त नूतन मेघ के समान सुशोभित होने लगा ॥ २७ ॥ उन वधू वरों ने अपनी कान्ति के द्वारा परस्पर एक दूसरे को अतिशय रूप से अपने वश किया था सो ठीक ही है क्योंकि प्रिय और प्रियाओं के बीच परस्पर प्रेम रस जो प्रवाहित होता है वही सुन्दरता का फल है ॥ २८ ॥ वेला को समुद्र के समान, अत्यधिक सौन्दर्य विशेष रूप लक्ष्मी को धारण करने वाले वे दोनों परस्पर इतने विश्वस्त थे कि एक दूसरे को छोड़ कर आधे निमेष तक भी रहने के लिये समर्थ नहीं थे ॥ २९ ॥ वह नन्दनवन के निकुञ्जों में प्रवाल निर्मित शय्या पर शयन कर, क्रोध से जिसने करवट बदल लो थी जिसका अधरोष्ठ कुछ-कुछ काँप रहा था ऐसी रूषी प्रिया को प्रसन्न करता हआ रमण करता था ॥ ३०॥ कभी वह उसके साथ गमन सम्बन्धी वेग से मेघों को खोंचने वाले विमान से जाकर मेरु पर्वत की शिखर पर स्थित जिन-मन्दिरों को आदरपूर्वक माला आदि से पूजा करता था ॥ ३१ ॥
१. कंभूर्धनिनो म० ।