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द्वादशः सर्गः न जन्मनोऽन्यत्परमस्ति दुःखं शरीरिणां मृत्युसमं भयं च । कष्टं निकामं जरसोऽनुरूपं ज्ञात्वेति सन्तः स्वहिते यजन्ते ॥५५ अनादिकालं भ्रमतोभवाब्धौ प्रियाप्रियत्वं सकलाः प्रयाताः। जीवस्य जीवा ननु पुद्गलाश्च नोकर्मकर्मग्रहणप्रयोगात् ॥५६ अनेकशो यत्र मृतो न जातो न सोऽस्ति देशः सकले त्रिलोके । सर्वेऽपि भावा बहुशोऽनुभूता जीवेन कर्मस्थितयोऽप्यशेषाः ॥५७ चिराय जानन्निति सर्वसङ्गे न रज्यते ज्ञान विशुद्धदृष्टिः । विमुक्तसङ्गस्तपसा समूलमुन्मूल्य कर्माण्युपयाति सिद्धिम् ॥५८ इतीरयित्वा वचनं वचस्वी हिताय तस्योपरराम साधुः । विशांपति स्तच्च तथेति मेने प्रत्येति भव्यो हि ममक्षवाक्यम ॥५९ सांसारिकी वृत्तिमवेत्य कष्टां निवयं चित्तं विषयाभिलाषात् । तपी विधातुं विधिनाचकाङ्क्ष श्रुतस्य सारं हि तदेव पुंसः ॥६० आर्टोत्तरीयां नयनाम्बुसेकैरपास्य कान्तां सह राज्यलक्ष्म्या। सद्यस्तदन्ते स तपोधनोऽभून्न काल हानिर्महतां हितार्थे ॥६१ प्रावर्ततालस्यमपास्य दूरमावश्यकासु प्रकटक्रियासु। गुरोरनुज्ञामधिगम्य भेजे सदोत्तरान्साधुगुणा नशेषान् ॥६२
उनके पास जाने में भयभीत होता है ॥ ५४ ॥ जीवों को जन्म से बढ़कर दूसरा दुःख नहीं है, मृत्यु के समान भय नहीं है और वृद्धावस्था के अनुरूप अधिक कष्ट नहीं है ऐसा जान कर सत्पुरुष आत्महित में यत्न करते हैं ।। ५५ ॥ यह जोव अनादि काल से संसार रूपी सागर में भ्रमण करता हुआ जो कर्म और कर्म को ग्रहण कर रहा है इसलिये निश्चय से सभी जीव और पुद्गल इसके प्रिय और अप्रियपन को प्राप्त हो चुके हैं ॥ ५६ ।। समस्त तीनों लोकों में वह स्थान नहीं है जहाँ यह जीव अनेक बार न मरा हो न उत्पन्न हुआ हो। इस जीव ने अनेक बार समस्त भावों और समस्त कर्म स्थितियों का भी चिरकाल तक अनुभव किया है ऐसा जानता हुआ ज्ञानी जीव सर्व प्रकार के परिग्रह में राग नहीं करता है किन्तु उसका त्यागी होता हुआ तप से कर्मों को समूल उखाड़ कर सिद्धि को प्राप्त होता है ।। ५७-५८ ॥ प्रशस्त वचन बोलने वाले मुनि, उसके हित के लिये इस प्रकार के वचन कह कर चुप हो रहे और राजा कनकध्वज ने उन वचनों को 'तथास्ति कह कर स्वीकृत किया सो ठीक ही है क्योंकि भव्य प्राणी ममक्षजनों के वचनों की श्रद्धा करता ही है ।। ५९ ।। इस प्रकार संसार की वृत्ति को दुःख रूप जान कर तथा विषयों की अभिलाषा से चित्त को निवृत्त कर उसने विधिपूर्वक तप करने की इच्छा की सो ठीक ही है क्योंकि मनुष्य के शास्त्र ज्ञान का फल वहीं है ।। ६० ।। अश्रुजल के सेवन से जिसका उत्तरीय वस्त्र गीला हो गया था ऐसी स्त्री को राज्य लक्ष्मी के साथ छोड़ कर वह उन्हीं मुनिराज के समीप शीघ्र हो तपोधन हो गया-मुनि दीक्षा लेकर तप करने लगा सो ठीक ही है क्योंकि महापुरुषों के हितकार्य में विलम्ब नहीं होता है ।। ६१ ।। वह आलस्य को दूर छोड़ कर समता, वन्दना, स्तुति, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय और कायोत्सर्ग इन छह आवश्यक क्रियाओं के करने में प्रवृत्त हुआ तथा गुरु की आज्ञा